________________
४५८
सूत्रकृतांग सूत्र करते हैं। गृहस्थ के बर्तनों में भोजन करने के कारण आपको परिग्रह लगता ही है तथा आप लोग आहार में भी मूर्छा करते हैं। इसलिए अपने आपको अपरिग्रही मानना कैसे उचित कहा जा सकता है। फिर आप भिक्षा लाने में असमर्थ रुग्ण साधु के लिए गृहस्थों के यहाँ से स्वयं भिक्षा न लाकर गृहस्थों से मँगाते हैं, किन्तु साधु को गृहस्थों से भोजन मँगाने का अधिकार (नियम) नहीं है। इसलिए गृहस्थ के द्वारा लाए हुए आहार के खाने में जो दोष होता है वह भी आपको जरूर लगता है। गृहस्थ लोग सचित्त बीज और कच्चे जल का उपमर्दन करके आहार बनाते हैं तथा रोगी साधु के लिए तो विशेषतः आहार तैयार करते हैं, उस आहार को आप स्वयं गृहस्थों के घरों में जाकर करते हैं, तथा गृहस्थों के द्वारा लाया हुआ आहार रुग्ण साधु को देते हैं। इस प्रकार आप गृहस्थों द्वारा सेवा कराते हुए कच्चे जल और सचित्त बीज का उपभोग करते हैं, एवं उद्दिष्ट आहार आदि का सेवन करते हैं। इन सब बातों को देखते हुए निःसन्देह यह कहा जा सकता है कि आप साधुवेष में होते हुए भी गृहस्थ पक्ष का सेवन कर रहे हैं । अथवा आप स्वयं तो असत् आचरण करते हैं, किन्तु सत् आचरण करने वालों की निन्दा करते हैं, इस कारण आप द्विपक्ष सेवी हैं । इस प्रकार प्राज्ञ एवं मोक्षमार्ग विशारद साधु उक्त आक्षेपकर्ताओं को उत्तर दे।
मूल पाठ लित्ता तिव्वाभितावेणं, उज्झिया असमाहिया । नातिकंडू इयं सेयं, अरुयस्सावरज्झती ॥१३॥
संस्कृत छाया लिप्तास्तीवाभितापेन, उज्झिता असमाहिताः । नातिकण्डूयितं श्रेयोऽरुषोऽपराध्यति ॥१३।।
___अन्वयार्थ
(तिव्वाभितावेणं) आप लोग तीव्र कषायों या तीव्रबन्धवाले कर्मों से (लित्ता) लिप्त (उज्झिया) सद्विवेक से रहित तथा (असमाहिया) शुभ अध्यवसाय से रहित हैं। (अरुयस्स) घाव-व्रण का (अतिकडूइयं) अधिक खुजलाना (न सेयं) अच्छा नहीं है, (अवरज्झती) क्योंकि वह दोष उत्पन्न करता है।
भावार्थ आप लोग तीव्रकषायों या तीव्रबन्ध वाले कर्मों से लिप्त हैं, सद्विवेक से रहित हैं और शुभ अध्यवसाय से भी दूर हैं। अतः हमारी राय में घाव का अत्यन्त खुजलाना अच्छा नहीं हैं। क्योंकि उससे घाव में विकार ही उत्पन्न होता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org