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________________ उपसर्गपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन-तृतीय उद्देशक ४५७ इसलिए आपका उस पर द्वष है । अथवा आप लोग स्वयं ही एक ओर बोण, कच्चा पानी और उद्दिष्ट आहार आदि का सेवन करने के कारण गृहस्थ हैं, और दूसरी ओर साधु का वेष रखने के कारण साधु कहलाते हैं, इस प्रकार आप लोग दो पक्षों का सेवन करते हैं। अथवा यह अर्थ भी सम्भव है कि “आप लोग स्वयं असद् अनुष्ठान करते हैं और सद्-अनुष्ठान करने वाले दूसरे सुविहित साधुओं की निन्दा करते हैं। इसलिए आप लोग दो पक्षों का सेवन करते हैं।" मूल पाठ तुब्भे भुंजह पाएसु गिलाणों अभिहडंमि या । तं च बीओदगं भोच्चा, तमुद्दिसादि जंकडं ॥१२।। संस्कृत छाया यूयं भुंध्वं पात्रेषु ग्लान अभ्याहृते यत् तच्च बीजोदकं भुक्त्वा तमुद्दिश्यादि यत् कृतम् ।।१२।। अन्वयार्थ (तुब्भे) आप संत लोग (पाएसु) काँसा, ताँबा आदि धातु के बर्तनों में ( जह) भोजन करते हैं। (गिलाणो) रोगी संत के लिए (अभिहडंमि या) गृहस्थों के द्वारा भोजन मँगाते हैं (तं च) तथा आप (बीओदगं) बीज और सचित्तकच्चे जल का (भोच्चा) उपभोग करते हैं, तथा (जं कडं तम्मुहिसादि) किसी संत के निमित्त से बने या बनाये हुए उद्देश्य आदि दोषों से युक्त आहार का सेवन करते हैं। भावार्थ आप लोग काँसा, तांबा, पीतल, चाँदी आदि धातु के वर्तनों में भोजन करते हैं तथा रोगो साधु के लिए गृहस्थों से भोजन मँगवा कर लेते हैं, इसी प्रकार आप लोग कच्चा पानी, उगने लायक सचित्त बीज आदि का उपभोग करते हैं तथा जो आहार किसी साधु के निमित्त से बना है, उस औद्देशिक आदि दोषों से युक्त आहार का बेखटके सेवन करते हैं। व्याख्या ___अन्यतीथियों के आक्षेप का प्रत्याक्षेप इस गाथा में पूर्वगाथाओं में अन्यमतावलम्बी आजीवक आदि के द्वारा किये गए आक्षेप का और तरह से प्रतिवाद करने की बात शास्त्रकार ने उठाई है । अर्थात आक्षेप के बदले प्रत्याक्षेप किया गया है। आप लोग (साधु) परिग्रहरहित होने के कारण निष्किंचन कहलाते हैं, लेकिन इसके बावजूद भी आप काँसा, ताँबा, चाँदी आदि धातुओं के बर्तनों में भोजन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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