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सूत्रकृतांग सूत्र
इसका एक नमूना इस गाथा में बताया है - 'सम्बद्धसमकप्पा उ अर्थात् — वे सुविहित साधुओं पर आक्षेप करते हैं-- देखो तो सही, ये लोग घर-बार, कुटुम्ब - कबीला और सभी नाते-रिश्ते छोड़कर साधु बने हैं, लेकिन इनमें भी परस्पर एकदूसरे साधुओं के साथ पुत्र कलत्र आदि स्नेहपाशों से सम्बद्ध ( परस्पर उपकार्यउपकारकरूप से बँधे हुए) गृहस्थों का सा व्यवहार है । जैसे गृहस्थ माता-पिता, पत्नी आदि के मोहबन्धन में बँधे होते हैं, और परस्पर एक-दूसरे के सहायक होते हैं, उसी प्रकार ये साधु भी आपस में किसी न किसी नाते-रिश्ते से बंध जाते हैं । जैसे गृहस्थजीवन में पिता पुत्रों पर आसक्त होता है, पत्नी पति पर अनुराग करती है। और पति पत्नी पर अनुरक्त होता है, इसी प्रकार इन साधुओं में भी गुरु का शिष्य पर और शिष्य का गुरु पर गाढ़ अनुराग होता है । गुरुभाइयों में भी परस्पर रागभाव होता है । इन्होंने गृहस्थी के नाते-रिश्ते छोड़े, किन्तु यहाँ नये नाते-रिश्ते बना लिये | आसक्ति तो वैसी की वैसी बनी रही है, केवल आसक्ति के पात्र बदल गये हैं । फिर इनमें और गृहस्थों में क्या अन्तर रहा ? इनका व्यवहार गृहस्थों जैसा ही तो है ! फिर ये परस्पर आसक्त होकर एक-दूसरे का उपकार भी करते हैं । जब कोई साधु बीमार हो जाता है तो ये उस रोगी साधु के प्रति अनुरागवश उसके योग्य पथ्ययुक्त आहार अन्वेषण करके लाते हैं और उसे देते हैं । यह गृहस्थ के समान व्यवहार नहीं तो क्या है ?
इस प्रकार परोक्षरूप से आक्षेपवचन के बाद वे प्रत्यक्षरूप से कैसे आक्षेप पर उतर आते हैं ? इसे ही शास्त्रकार कहते हैं
मूल पाठ
एवं तुब्भे सरागत्था, अन्नमन्नमणुव्वसा । नट्ठसप्पहसम्भावा संसारस्स अपारगा ॥ १०॥ संस्कृत छाया
एवं यूयं सरागस्था, अन्योऽन्यमनुवशाः । नष्टसत्पथसद्भावाः संसारस्यापारगाः || १०॥
अन्वयार्थ
( एवं ) पूर्वोक्त प्रकार के अनुसार ( तुम्भे) आप साधु लोग ( सरागत्था ) स्पष्टतः सरागी हैं और ( अन्नमन्नमणुव्वसा) परस्पर एक-दूसरे के वश में रहते हैं ! अत: (नट्ठसप्पहसन्भावा) आप लोग सन्मार्ग और सद्भाव से रहित हैं, इसलिए ( संसारस्स) संसार को ( अपारगा) पार नहीं कर सकते हैं ।
भावार्थ
अन्यतीर्थी लोग सम्यग्दृष्टि सुविहित साधुओं पर आक्षेप करते हुए कहते हैं- पूर्वोक्त प्रकार से आप लोग सराग हैं, एक दूसरे के वशीभूत रहते
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