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उपसर्गपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन-तृतीय उद्देशक
४५३ मुक्तिरूप समाधि से काफी दूर हैं । जैसे लोहे की सलाइयाँ आपस में नहीं मिलती हैं, अलग-अलग रहती हैं, वैसे ही ये अन्य मतावलम्बी आक्षेपक परस्पर उपकार से दूरदूर रहते हैं। अथवा यों समझना चाहिए कि जो साधुओं के उत्तम आचार की निन्दा करते हैं या आक्षेपात्मक वचन बोलते हैं, उनका धर्म पुष्ट नहीं है तथा वे समाधि-मोक्षरूप सम्यक् ध्यान या सम्यक् अनुष्ठान से दूर हैं। उनका मन-वचनकाया के संयम से कोई वास्ता नहीं है। उन बेचारों के प्रति सुविहित साधु तरस खाए। यों ही सोच ले कि हाथी अपनी चाल से चलता है, उसके पीछे कुत्ते भौंकते रहते हैं, उन पर वह कोई ध्यान नहीं देता, उसी प्रकार वीतरागता का पथिक साधु उनकी आक्षेपात्मक बातों पर कोई ध्यान न दे। हाँ, अपने संयमाचरण में कोई गलती हो या भूल हो तो उसे अवश्य सुधार ले। आक्षेपक या निन्दक लोगों द्वारा कहे गये वचन सुनकर सावधानी रखे। यही इस गाथा द्वारा शास्त्रकार ने ध्वनित कर दिया है।
अगली गाथा में शास्त्रकार अन्यतीथियों द्वारा किये जाते हुए आक्षेपों का निरूपण करते हैं
मूल पाठ सम्बद्धसमकप्पा उ, अन्नमन्नेसु मुच्छिया । पिंडवायं गिलाणस्स, जं सारेह दलाह य ।।६।।
संस्कृत छाया सम्बद्धसमकल्पास्तु, अन्योऽन्येषु मूच्छिताः। पिण्डपातं ग्लानस्य, यत्सारयत ददध्वञ्च ।।६।।
__ अन्वयार्थ (सम्बद्धसमकप्पा उ) ये लोग गृहस्थ सम्बन्धियों के समान व्यवहार करते हैं। (अन्नमन्नेसु मुच्छिया) ये परस्पर एक-दूसरे के प्रति आसक्त रहते हैं। (ज) क्योंकि ये (गिलाणस्स) रोगी साधु के लिए (पिंडवायं) भोजन (सारेह) लाते हैं (य) और (दलाह) उसे देते हैं।
भावार्थ अन्यतीर्थी लोग सम्यग्दृष्टि सुविहित साधुओं के विषय में यह आक्षेप करते हैं कि इन साधुओं का व्यवहार तो गृहस्थ सम्बन्धियों का सा है। जैसे गृहस्थ अपने कुटुम्ब में परस्पर आसक्त रहते हैं, वैसे ही ये साधु भो परस्पर आसक्त रहते हैं। रोगी साधु के लिए ये भोजन लाते हैं और उसे देते हैं।
व्याख्या
___ गृहस्थों का-सा व्यवहार है इन साधुओं का ! अन्यमतावलम्बी किस-किस प्रकार का आक्षेप सुविहित साधुओं पर करते हैं?
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