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उपसर्गपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन-तृतीय उद्देशक हैं। अतः आप लोग सत्पथ और सद्भाव से रहित हैं। इसलिए संसार को पार नहीं कर सकते।
व्याख्या
सुविहित साधुओं पर प्रत्यक्ष आक्षेप . इस गाथा में पूर्वगाथा में उक्त परोक्ष आक्षेप को अन्यतीर्थी लोगों द्वारा किये जाने वाले प्रत्यक्ष आक्षेप के रूप में प्रस्तुत करते हैं.---'एवं तुम्भे सरागत्था ...... अपारगा।' इससे पहली गाथा में किये गये आक्षेप साधुओं के प्रति सीधे नहीं थे। वे साधुओं के विषय में किसी अन्य के सामने कानाफूसी करते या उनकी निन्दा दूसरों के समक्ष करते हैं, कर्णोपकर्ण से साधुओं के कानों में वे आक्षेपात्मक शब्द आकर टकराते हैं । जबकि इस गाथा में अन्यतीथियों द्वारा साधुओं पर सीधे आक्षेप पर उतर आने का वर्णन है। वे साधुओं से कहते हैं "अजी ! आप लोग गृहस्थों की तरह परस्पर एक दूसरे से रागभाव से बँधे हुए हैं, अपने और अपनों का परस्पर उपकार करते हैं, इसलिए रागयुक्त हैं।" रागसहित स्वभाव को सराग कहते हैं और सराग में स्थित को सरागस्थ (सरागत्था) कहते हैं । फिर वे कहते हैं -- आप काहे के साधु हैं ? आप तो परस्पर एक-दूसरे के प्रति आसक्तिवश हैं। जैसे गृहस्थों में आसक्ति के कारण परस्पर अधीनता रहती है, वैसी ही आप में है। साधु को नि संग रहना चाहिए, किसी के वश में रहना तो ठीक नहीं । वश में रहना तो गृहस्थों का व्यवहार है । अतः आप लोग सन्मार्ग -- मोक्ष के यथार्थ मार्ग तथा सद्भाव -- परमार्थ से भ्रष्ट हैं । इसलिए आप लोग चार गतियों में भ्रमणरूप संसार को पार नहीं कर सकते. मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकते ।
पूर्वपक्ष बताकर अब इसका खण्डन करने के लिए आगामी गाथा में कहते
मूल पाठ अह ते परिभासेज्जा, भिक्खु मोक्ख विसारए । एवं तुब्भे पभासंता, दुपक्खं चेव सेवह ॥ १॥
संस्कृत छाया अथ तान् परिभाषेत भिक्षुर्मोक्षविशारदः । एवं यूयं प्रभाषमाणाः दुष्पक्षञ्चैव सेवध्वम् ।।११।।
अन्वयार्थ (अह) इसके पश्चात् (मोक्खविसारए) मोक्षविशारद---अर्थात् ज्ञान-दर्शनचारित्र की प्ररूपणा करने में निपुण (भिक्खु) साधु (ते) उन अन्यतीथियों से (परिभासेज्जा) कहे कि (एवं) इस प्रकार (पभासंता) कहते हुए (तुभे) आप लोग (दुपक्खं) दुष्पक्ष-- मिथ्यापक्ष का (सेवह) सेवन करते हैं ।
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