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________________ ४५० सूत्रकृताग सूत्र भावार्थ जो पुरुष संसार में प्रसिद्ध वीरों में अग्रगण्य हैं, वे तो युद्ध के मौके पर आगा-पीछा नहीं सोचते कि विपत्ति के समय मेरी रक्षा कैसे होगी ? वे समझते हैं कि अधिक से अधिक मृत्यु के सिवाय और क्या हो सकता है ? व्याख्या वीर पीछे नहीं, आगे ही देखते हैं युद्ध के मोर्चे पर वीर की मनोवृत्ति कैसी होती है, इसका सुन्दर चित्रण प्रस्तुत करते हैं - 'जे उ संगामकालंमि......."मरणं सिया ।' अर्थात् जो पुरुष महापराक्रमी, जगप्रसिद्ध वीरों में अग्रणी हैं, वे युद्ध के समय पीछे होने वाली बात का विचार तक नहीं करते और न ही दुर्गम स्थानों में छिपकर अपनी रक्षा करने के लिए पीछे की ओर झाँकते हैं। वे युद्ध के समय आगे रहते हैं। युद्ध का मैदान छोड़कर भागने का उनका विचार होता ही नहीं। वे समझते हैं कि इस युद्ध में हमारी अगर अधिक से अधिक हानि होगी तो यही हो सकती है कि हम मौत के मेहमान हो जाएँ। किन्तु वह मृत्यु सदा स्थायी रहने वाली कीति की अपेक्षा तो हमारी दृष्टि में तुच्छ है। कहा भी है विशरारुभिरविनश्वरमपि चपलैः स्थास्नु वाञ्छतां विशदम् । प्राणयदि शूराणां भवति यशः किन पर्याप्तम् अर्थात्-~~-मनुष्यों के प्राण नाशवान और चंचल हैं, उन्हें देकर अविनाशी, स्थिर और शुद्ध युद्ध के अभिलाषी वीरों को यदि प्राणों के बदले यश मिलता है, तो वया वह प्राणों से बढ़कर मूल्यवान नहीं है ? सुभटों की मनोवृत्ति का दृष्टान्त देकर अब दाष्टन्ति बतलाते हैं __ मूल पाठ एवं समुठिए भिक्खू, वोसिज्जाऽगारबंधणं । आरंभ तिरियं कटु, अत्तत्ताए परिव्वए ।।७।। संस्कृत छाया एवं समुत्थितो भिक्षुः, व्युत्सृज्यागारबन्धनम् । आरम्भं तिर्यक् कृत्वा, आत्मत्वाय परिब्रजेत् ।।७।। अन्वयार्थ (एवं) इस प्रकार (अगारबंधण) गृहबन्धन को (बोसिज्जा) त्याग करके (आरंभ) तथा आरम्भ को (तिरिय कटु) तिलांजलि देकर (समुट्ठिए) संयमपालन के लिए समुत्थित-समुद्यत (भिक्खू) साधु (अत्तत्ताए) आत्मभाव-मोक्ष की प्राप्ति के लिए (परिव्वए) संयम का अनुष्ठान करे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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