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उपसर्गपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन-तृतीय उद्देशक यही सोचते रहते हैं कि संयम से भ्रष्ट होने पर जीवननिर्वाह व्याकरण आदि विद्याओं से करके अपनी रक्षा कर सकूँगा।
व्याख्या
संयमपालन में संशयशील साधक पूर्वगाथाओं में अल्पपराक्रमी साधु की संयमपालन में कायरता की मनोवृत्ति का चित्रण किया है, इस गाथा में उनकी अस्थिर मनोवृत्ति का परिचय देते हुए शास्त्रकार कहते हैं - 'इच्चेव पडिलेहंति - अकोविया ।' कच्चे एवं अल्पसत्त्व साधक के मन में संशय बना रहता है कि इस कठोर संयम का मैं आजीवन पालन कर भी सकूँगा या नहीं ? संयम कठोर क्यों है ? इसके लिए कहा है -
लुक्खमणुण्हमणिययं, कालाइक्कंत-भोयणं विरसं ।
भूमीसयणं लोओ असिणाणं बंभचेरं च ॥ अर्थात् ---यहाँ रूखा और ठण्डा आहार मिलता है, वह भी कभी मिलता है, कभी नहीं। और वह भोजन का समय बीत जाने पर मिलता है और वह भी नीरस । प्रवजित पुरुष को भूमि पर सोना पड़ता है, लोच करना, स्नान न करना तथा ब्रह्मचर्य पालन करना, यह कितना कठोर एवं कठिन संयम है ?
संयम की कठोर क्रियाओं को देखकर ही वह संशय करता है । जैसे मार्ग को न जानने वाला संशय करता है कि यह मार्ग जिस स्थान पर जाना है, वहाँ जाता भी है या नहीं ? और वह चंचलचित्त हो उठता है, इसी तरह लिये हुए संयमभार को अन्त तक वहन कर सकने में संशयशील कायर साधक निमित्तशास्त्र, आयुर्वेद आदि शास्त्रों से अपनी आजीविका चलाने की आशा रखते हैं।
___ अब शूरवीर योद्धाओं का दृष्टान्त देकर महासत्त्व साधक की मनोदशा बताते हैं
मूल पाठ जे उ संगामकालंमि नाया सूरपुरंगमा। णो ते पिट्ठमुवेहिति, कि परं मरणं सिया ॥६।।
संस्कृत छाया ये तु संग्रामकाले, ज्ञाताः शूरपुरंगमाः । नो ते पृष्ठमुत्प्रक्षन्ते, किं परं मरणं स्यात् ।।६।।
अन्वयार्थ (उ) परन्तु (जे) जो पुरुष (नाया) जगत्प्रसिद्ध (सूरपुरंगमा) शूरवीरों में अग्रगण्य हैं, (ते) वे (संगामकालम्मि) युद्ध का समय आने पर (णो पिट्ठमुवेहिति) पीछे की बात पर ध्यान नहीं देते हैं, वे समझते हैं कि (कि परं मरणं सिया) मरण के सिवाय और क्या हो सकता है ?
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