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सूत्रकृतांग सूत्र बताकर अपना निर्वाह कर लूंगा। ऐसा निश्चय करके वे अल्पपराक्रमी व्यक्ति व्याकरण, आयुर्वेद, ज्योतिष आदि लौकिक विद्याओं के अध्ययन में प्रवृत्त होते हैं। यद्यपि वे निर्वाह के लिए व्याकरण आदि विद्याएँ सीखते हैं, तथापि इन विद्याओं से उन अभागों का अभीष्ट मनोरथ सिद्ध नहीं होता। एक अनुभवी ने कहा है
उपशमफलाद् विद्याबीजात् फलं धन मिच्छताम् ।
भवति विफलो यद्यायासस्तदत्र किमद्भुतम् ॥ अर्थात्-उपशमरूप को उत्पन्न करने वाले विद्याबीज से धन प्राप्त करना चाहने वालों का श्रम यदि निष्फल होता है तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है ?
मोक्षविद्यारूपी बीज शान्तिरूपी फल को उत्पन्न करता है। उस विद्याबीज से यदि कोई मनुष्य धनरूपी फल की अभिलाषा करता है, और उसका परिश्रम यदि व्यर्थ होता है तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। प्रत्येक वस्तु का फल नियत होता है। जिस वस्तु का जो फल है, उससे भिन्न फल वह अपने कर्त्ता को नहीं दे सकती। जैसे चावल के बीज से जौ का अंकुर कभी उत्पन्न नहीं हो सकता।
अत: उन अल्पसत्त्व साधकों का अज्ञान और मोह से प्रेरित संयमविरुद्ध विपरीत चिन्तन उनकी बुद्धि को तामसिक और राजसिक अवश्य बना देता है, मगर यथार्थ चिन्तन, तदनुरूप कार्य और तदनुसार फललाभ नहीं होता।
मूल पाठ इच्चेव पडिलेहंति, वलया पडिलेहिणो । वितिगिच्छसमावन्ना, पंथाणं च अकोविया ॥५॥
संस्कृत छाया इत्येवं प्रतिलेखन्ति, वलय-प्रतिलेखिनः। विचिकित्सासमापन्नाः पथश्चाको विदाः ।।५।।
अन्वयार्थ (वितिगिच्छसमावन्ना) इस संयम का पालन मैं कर सकूँगा या नहीं, इस प्रकार के संशय में पड़े हुए (पंथाणं च अकोविया) और मोक्षमार्ग को नहीं जानने वाले (वलया पडिलेहिणो) युद्ध के समय गड्ढे आदि ढूँढ़ने वाले कायर पुरुषों के समान (इच्चेव पडिलेहंति) अल्पपराक्रमी कच्चे साधक भी इसी प्रकार के अंटसंट विचार करते हैं।
भावार्थ मैं इस संयम का पालन कर सकूँगा या नहीं ? इस प्रकार के संशय में पड़े हुए और मोक्षमार्ग से अनभिज्ञ जीव युद्ध के मौके पर छिपने का स्थान ढूँढने वाले कायर के समान तथा मार्ग न जानने वाले मूर्ख के समान
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