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उपसर्गपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन -- तृतीय उद्देशक
भावार्थ
इसी प्रकार (पूर्वोक्त शूरवीरों की तरह) जो साधु गृहबन्धन का व्युत्सर्ग (त्याग) करके तथा सावद्य-अनुष्ठान को छोड़कर निरवद्य संयमपालन करने के लिए उद्यत हुआ है, वह मोक्षप्राप्ति या आत्मभाव के लिए सयम का पालन करे ।
व्याख्या
संयमपालन में सुदृढ़ साधक की मनःस्थिति
सुभटों की मनोवृत्ति का परिचय देने के बाद अब उस दृष्टान्त को दान्त पर घटाते हैं - 'एवं समुट्ठिए परिव्वए ।'
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आशय यह है कि जो लोग नाम, कुल, शिक्षा और शूरवीरता में विश्व - विख्यात हैं, वे शत्रुसेना को भेदन करने वाले पुरुष जब कमर कसकर एवं हाथों में शस्त्रास्त्र लेकर युद्ध के लिए तैयार होते हैं, तब वे पीछे की ओर मुड़कर नहीं देखते, इसी तरह जो पराक्रमशाली महान् साधु कषायों और इन्द्रियविषयोंरूपी शत्रुओं पर विजय पाने के लिए तथा परीषहों और उपसर्गों का सामना करने एवं जन्म-मरण के चक्र को भेदन करने हेतु जब संयमभार को लेकर उद्यत - उत्थित होते हैं, तब वे भी पीछे की ओर मुड़कर नहीं झाँकते कि हमारे घरवालों का क्या होगा ? ये विविध भोगोपभोग के साधन नहीं मिलेंगे तो क्या होगा ? मैं संयम नहीं पाल सका तो भविष्य में क्या होगा ? उनके मन में ये दुर्विकल्प उठते ही नहीं । वह सोचता है कि एक बार जब मैंने गार्हस्थ्यबन्धनों को काटकर फेंक दिया है और आरम्भ समारम्भों को तिलांजलि दे दी है तथा संयम के लिए उद्यत हुआ हूँ तो फिर वापिस पीछे मुड़कर उन्हें अपनाने का कोई सवाल ही नहीं उठता। वीर का प्रत्येक कदम आगे होता है, पीछे नहीं । उसकी विजययात्रा का मूलमंत्र यही होता है
'कार्यं वा साधयेयम्, देहं वा पातयेयम् ।
अर्थात् - या तो कार्य (मोक्षप्राप्तिरूप) सिद्ध करके छोडूंगा, या वहीं देहत्याग कर दूँगा ।'
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अत्तत्ताए परिव्वए - आत्मा के स्वभाव को आत्मतत्त्व कहते हैं । वह पूर्णतया समस्त कर्मकलंक से रहित होने पर होता है, उस आत्मतत्त्व के लिए सुविहित साधु को सावधान होकर विजययात्रा के लिए आगे कूच करना चाहिए । अथवा साधुजीवन का ध्येय आत्मा का मोक्ष या संयम है, उसका भाव आत्मभाव है, उक्त आत्मभाव के लिए चारों ओर से संयमानुष्ठान क्रिया में दत्तचित्त होकर जुट जाना चाहिए | क्योंकि शास्त्र में बताया है
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