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________________ उपसर्गपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन - द्वितीय उद्देशक भावार्थ साधुसमाचारी के लिए आचार्य आदि द्वारा बार-बार प्रेरणा दिये जाने पर भी अल्पसत्त्व साधक उस साधुसमाचारी का पालन करते हुए संयमी जीवन यापन करने में अपने आपको असमर्थ जानकर संयम में शिथिल होकर या संयमभार छोड़कर उसी तरह ढीले होकर बैठ जाते हैं जिस तरह ऊँचे चढ़ाव वाले मार्ग में दुर्बल बैल ढीले होकर पड़ जाते हैं । व्याख्या संयम से विचलित साधकों की दशा जो साधक पूर्वोक्त भोगों का निमंत्रण पाकर एक बार संयम में शिथिल हो जाता है, अपनी साधुसमाचारी के अनुसार नहीं चलता, उसे आचार्य, गुरु आदि साधुसमाचारी पर चलने को प्रेरित करते हैं, उसको भी सहन करने में असमर्थ और संयमपालनपूर्वक जीवनयापन करने में अशक्त अल्पसत्त्व साधक मोक्षप्राप्ति के प्रधान साधन तथा करोड़ों जन्मों के पश्चात् मिले हुए संयमरत्न के पालन में शिथिल हो जाता है । यह बात दृष्टान्त द्वारा समझायी गयी है— जैसे उद्यान यानी मार्ग के ऊँचे भाग पर अत्यन्त बोझ से दबे हुए तथा लदे हुए भार को ढोने में असमर्थ दुर्बल बैल गर्दन नीची करके निढाल होकर धप्प से बैठ जाते हैं, उसी तरह अल्पसत्त्व बुद्धिमन्द अदूरदर्शी साधक भी अनुकूल-प्रतिकूल उपसर्ग को सहन करने का संयम की चढ़ाई वाला ऊँचा मार्ग आता है तो मरियल बैल की तरह पंचमहाव्रत तथा साधुसमाचारी रूपी भार को वहन करने में अशक्त, दुर्बलमना होकर संयम से शिथिल होकर या संयम का त्याग करके नीची गर्दन किये बैठ जाते हैं । स्त्री आदि संगों या भोगासक्ति रूपी भावावर्त साधक को संयम से गिराने में निमित्त बनते हैं । भिक्खुरियाए - साधुचर्या के यहाँ दो अर्थ हैं - एक तो यह है कि ५ महाव्रत, ५ समिति, ३ गुप्ति आदि साधुजीवन की चर्या । दूसरा अर्थ है— इच्छाकार, मिच्छाकार आदि दस प्रकार की समाचारी, जो उत्तराध्ययनसूत्र में वर्णित है । मूल पाठ अचयंता व लूहेणं उवहाणेण तज्जिया 1 तत्थ मंदा विसीयंति, उज्जाणंसि जरग्गवा ॥ २१ ॥ ४४१ संस्कृत छाया अशक्नुवन्तो रूक्षेण, उपधानेन तर्जिताः । तत्र मन्दाः विषीदन्ति, उद्याने जरद्गवाः ॥ २१ ॥ Jain Education International अन्वयार्थ ( लूहेणं) रूक्ष नीरस कठोर संयम का पालन ( अचयंता) नहीं कर सकने For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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