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________________ सूत्रकृतांग सूत्र भोगों का प्रलोभन देकर गृहवास में फँसाने के लिए मुनि को तथाकथित लोग निमंत्रित करते हैं । ४४० भावार्थ हे साधकवर ! आपने चिरकाल तक संयम का आचरण करते हुए ग्रामानुग्राम विहार किया है । अब आपको इन भोगों को भोग लेने में कोई भी दोष कैसे हो सकता है ? इस प्रकार भोगों के उपभोग का आमंत्रण देकर लोग साधु को गृहवास में उसी तरह फँसा लेते हैं, जिस तरह चावल के दानों का प्रलोभन देकर सूअर को फँसाते हैं । व्याख्या सुसंयमी साधक को गृहवास में फँसाने का दुश्चक्र इतने आश्वासन देने के बावजूद भी जब सुसंयमी साधक ऐसे संकोच के कारण गृहवास में जाने को तैयार नहीं होता कि गृहस्थवास में मेरे पूर्वस्वीकृत महाव्रत, संयमनियमों को भंग करने का भयंकर दोष लगेगा । अतः शास्त्रकार कहते हैं कि पूर्वोक्त स्वजन या सत्ताधीश आदि साधु के मन को आश्वस्त करने के लिए कहते हैं- - " साधकप्रवर ! आपने बहुत वर्षों तक संयम-नियमों का पालन किया है, अब इन भोगों को भोगने में कोई दोष नहीं हो सकता है ।" इस प्रकार कहकर वे पूर्वोक्त समस्त भोग्यसामग्री प्रस्तुत करके उसके उपभोग की चाट लगाकर संगम - जीवी साधु के हृदय में भोगबुद्धि उत्पन्न कर देते हैं । उसे उसी तरह असंयम में या गृहवास में फँसा लेते हैं, जिस तरह चावलों के दाने डालकर सूअर को फँसा लेते हैं । मूल पाठ चोइया भिक्खुचरियाए, अचयंता वित्तए । तत्थ मंदा विसीयंति, उज्जाणंसि व दुब्बला ||२०|| संस्कृत छाया चोदिता: भिक्षुचर्य्ययाऽशक्नुवन्तो यापयितुम् । तत्र मन्दाः विषीदन्ति उद्यान इव दुर्बलाः ॥२॥ अन्वयार्थ ( भिक्खुरियाए ) संयमी साधुओं की चर्या - समाचारी पालन करने के लिए ( चोइया) आचार्य आदि के द्वारा प्रेरित (जवित्तए अचयंता) साधुसमाचारी के पालन- पूर्वक संयमी जीवनयापन करने में असमर्थ (मंदा) अल्पसत्त्व साधक ( तत्थ ) उस समय में (विसोयंति) शिथिल होकर उसी तरह बैठ जाते हैं (उज्जाणंसि व बला) जैसे चढ़ाव के ऊँचे मार्ग में दुर्बल बैल ढीले होकर बैठ जाते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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