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उपसर्गपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन-द्वितीय उद्देशक
अन्वयार्थ (सुव्वया) हे सुन्दर व्रत वाले मुनिवर ! (तुमे) तुमने (भिक्खुभावंमि) मुनि भाव में रहते हुये (जो) जिस (नियमो) नियम का (चिण्णो) आचरण-अनुष्ठान किया है । (आगारमावसंतस्स) घर में निवास करने पर भी (सव्वो) तुम्हारा बह सब व्रतनियम (तहा) उसी तरह ---पूर्ववत् (संविज्जए) बना रहेगा।
भावार्थ हे सुन्दर व्रतधारी साधक ! मुनि भाव में रहते हुये तुमने जिन महाव्रत आदि यम-नियमों का अनुष्ठान किया है, वह सब गृहनिवास करने पर भी पूर्ववत् बने रहेंगे।
व्याख्या
साधक को गृहवास में रहने का आश्वासन कई लज्जाशील संयमप्रिय साधक जब गृहवास में जाने में इसलिए कतराते हैं कि वहाँ जाने पर हमारे महावत यम-नियम आदि सब भंग हो जाएँगे, हमारी आज तक की सारी साधना मिट्टी में मिल जाएगी, बेकार हो जाएगी। अतः ऐसे साधुओं को गृहवास में फंसाने के हेतु उद्यत स्वजन या अन्य हितैषी-मोहीजन उनसे कहते हैं ..... मुनिवरो ! आपने जिन महाव्रत आदि यम-नियमों का पालन किया है, गृहवास में जाने पर वे उसी तरह रहेंगे, उनका फल कभी समाप्त नहीं होगा। गृहवास में वे नियम पूर्ववत् पाले जा सकेंगे, उनका फल भी पूर्ववत् मिलता रहेगा, क्योंकि मनुष्य के द्वारा किये गए पुण्य पाप तथा उनके फल का कभी नाश नहीं होता। अतः नियम भंग के भय से पूर्वोक्त सुखोपभोग करने में संकोच मत करो; यह तात्पर्य है।
मूल पाठ चिरं दुइज्जमाणस्स, दोसो दाणि कुतो तव ?। इच्चेव णं निमंतेन्ति नीवारेण व सूयरं ।।१६।।
संस्कृत छाया चिरं विहरतो दोष इदानीकुतस्तव ? । इत्येव निमंत्रयन्ति नीवारेणेव सूकरम् ।।१६।।
अन्वयार्थ हे साधकवर ! (चिरं) चिरकाल से (दुइज्जमाणस्स) संयम के आचरणपूर्वक विहार करते हुए (तव) आपको (दाणि) इस समय (दोसो) दोष (कुओ) कैसे हो सकता है ? (निवारण व सुयरं) जैसे लोग चावलों के दानों का प्रलोभन देकर सूअर को फंसा लेते हैं, (इच्चेव) इसी प्रकार (णं निमतेन्ति) विविध भोगोप
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