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________________ सूत्रकृतांग सूत्र आशय यह है कि सामान्य शासक से लेकर चक्रवर्ती तक जो भी छोटा-बड़ा शासक है, वह राजा पद से समझ लेना चाहिए । राजामात्य यानी मंत्री, पुरोहित, प्रधान आदि, एवं ब्राह्मण तथा इक्ष्वाकु आदि कुलों में उत्पन्न क्षत्रिय या आदि पद से अन्य कोई धनाढ्य वैभवशाली व्यक्ति सुविहित आचारवान साधु को शब्दादि विविध विषयोपभोगों के लिए आमंत्रित कर सकते हैं, परन्तु ऐसे अवसर को साधु परीक्षाकाल समझ कर किसी भी मूल्य पर अपने साधु-धर्म से फिसले नहीं, यह इस गाथा में ध्वनित किया गया है । ४३६ मूल पाठ हत्थsस्सरह जाणेह विहारगमणेह य 1 भुज भोगे इमे सग्घे, महरिसी ! पूजयामु तं ।। १६॥ संस्कृत छाया हस्त्यश्वरथयानैविहारगमनैश्च । भुंक्ष्व भोगानिमान् श्लाध्यान् महर्षे ! पूजयामस्त्वाम् ||१६|| अन्वयार्थ ( महरिसी ) हे महर्षि ! ( हत्थऽस्सर हजाणेहि ) ये हाथी, घोड़ा, रथ और पालकी आदि सवारियां आपके बैठने ( विहार गम ह य ) और मनोविनोद या आमोद-प्रमोद के हेतु ये बाग-बगीचे आपके सैर-सपाटे करने के लिए हैं । (इमे भोगे) इन उत्तमोत्तम भोगों का मनचाहा उपभोग कीजिए। ( तं पूजयामु) हम आपकी पूजा-प्रतिष्ठा ( आदर-सत्कार) करते हैं । भावार्थ पूर्वोक्त चक्रवर्ती राजा आदि मुनि के पास आकर कहते हैं - हे महाभाग ऋषिवर! ये हाथी, घोड़े, रथ और पालकी आदि सवारियाँ आपके बैठने के लिए हैं और आपके आमोद-प्रमोद या क्रीड़ा के एवं सैर-सपाटे हेतु ये बाग-बगीचे हैं | आप इन उत्तमोत्तम भोगों का जी चाहा उपभोग कीजिए । हम आपकी पूजा-प्रतिष्ठा करते हैं । व्याख्या किन विषयोपभोगों का प्रलोभन दिया जाता है ? सत्ताधीश या धनाधीश आदि अपनी किसी न किसी लौकिक स्वार्थपूर्ति के लिए या किसी स्वार्थसिद्धि के हो जाने पर पहले तो समुच्चयरूप में साधु को भोगों के लिए आमंत्रित करते हैं - " आइए, आप हमारे घर को पावन कीजिए, जितने दिन आपकी इच्छा हो, रहिए। आपके लिए यहाँ सब प्रकार की सुख-सुविधाएँ हैं ।" परन्तु इस पर सुविहित साधु जब संकोच करता है, अथवा सुख-सुविधाप्रिय साधु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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