________________
उपसर्गपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन --- द्वितीय उद्देशक
४३५ सर्वज्ञ तीर्थंकर भगवान महावीर ने आवर्त का स्वरूप बताया है। इसलिए जो विवेकी एवं दूरदर्शी साधक इन आवों का फल जानते हैं, वे साधक इनके उपस्थित होने पर झटपट वहाँ से दूर हट जाते हैं, परन्तु अज्ञानी इनमें आसक्त होकर महादुःख पाते हैं। इन्हीं आवतों को बताने के लिए शास्त्रकार कहते हैं
मूल पाठ रायाणो रायऽमच्चा य माहणा अदुव खत्तिया । निमंतयंति भोगेहि, भिक्खूयं साहुजीविणं ॥१५॥
संस्कृत छाया राजानो राजामात्याश्च ब्राह्मणा अथवा क्षत्रियाः । निमंत्रयन्ति भोगैभिक्षुकं साधुजीविनम् ॥१५॥
अन्वयार्थ (रायाणो) राजा, महाराजा आदि, (रायऽमच्चा य) और राजमंत्रीगण (माहणा) ब्राह्मण (अदुवा) अथवा (खत्तिया) क्षत्रिय (साहुजीविणं) उत्तम आचारविचारपूर्वक जीवन जीने वाले (भिक्खुयं) भिक्षु को (भोगेहि) विविध भोग भोगने के लिए (निमंतयंति) निमंत्रित करते हैं ।
भावार्थ राजा, महाराजा, चक्रवर्ती और राजमंत्री तथा ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय उत्तम आचार-विचारपूर्वक जीवन जीने वाले साधु को कामभोग भोगने के लिए आमंत्रित करते हैं।
व्याख्या
राजाओं आदि द्वारा भोगों का आमंत्रण मिलने पर भोगों का किसी सत्ताधीश या धनाधीश द्वारा आमंत्रण मिलना भी अनुकूल उपसर्ग है। और ऐसे अनुकूल उपसर्गों के मिलने पर बड़े-बड़े धर्मधुरंधर आचार्य एवं साध भी उसे स्वीकार करते देखे गए हैं। उस युग के महान् प्रभावक आचार्य तक भी राजा, बादशाह या किसी सत्ताधीश द्वारा दी गई पालकी, छत्र, चामर, तथा विविध सुख-सुविधाएँ, भोगसामग्री स्वीकार करते देखे गए हैं, तब सामान्य साधु की तो बिसात ही क्या ? कई रूपयौवन सम्पन्न साधओं को मगधाधीश श्रेणिक जैसे भी आमंत्रित करते हैं। ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती ने चित्त नामक साधु को विविध प्रकार के विषय-भोगों और सुख-सुविधाओं का प्रलोभन दिया था। इसीलिए शास्त्रकार इस अनुभवसिद्ध बात को कहते हैं-'रायाणो रायऽमच्चा य"भिक्खूयं साहुजीविणं ।'
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org