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________________ ४३४ सूत्रकृतांग सूत्र स्वजनों के प्रस्ताव को ठुकरा दे, किसी भी मूल्य पर गृहवास या सांसारिक मार्ग को स्वीकार न करे। मूल पाठ अहिमे संति आवट्टा, कासवेणं पवेइया । बुद्धा जत्थावसप्पंति, सीयंति अबुहा जहिं ॥१४॥ संस्कृत छाया अथेमे सन्त्यावर्ताः, काश्यपेन प्रवेदिताः । बुद्धाः यत्रावसर्पन्ति, सीदन्त्यबुधाः यत्र ॥१४॥ __अन्वयार्थ (अह) इसके बाद (कासवेण) काश्यपगोत्री भगवान महावीर ने (पवेइया) यह खासतौर से बता दिया कि (इमे ये संग-संसर्ग (आवट्टा संति) आवर्त--भँवर जाल-चक्कर हैं। (जत्थ) जिनके आने पर बुद्धा) तत्त्वज्ञ पुरुष (अवसप्पति) झटपट इनसे अलग हट जाते हैं, इनसे दूर से ही किनाराकशी कर लेते हैं । (अबुद्धा हिं) जहाँ कि अज्ञानी अदूरदर्शी विवेकमूढ़ (सीयंति) इनमें फँसकर दु:ख पाते हैं। भावार्थ इसके अनन्तर काश्यपगोत्री भगवान् महावीर ने विशेषत: निरूपण किया है कि ये पूर्ववणित संग आवर्त भंवरजाल या चक्कर हैं। विद्वान पुरुष इन आवों से दूर रहते हैं, जबकि अज्ञानी निविवेकी व्यक्ति इनमें बुरी तरह फंसकर दुःख पाते हैं। व्याख्या ज्ञानी साधक संग के चक्करों से दूर इस गाथा में संग को आवर्त कहकर उनसे दूर रहने की प्रेरणा दी है-- 'अहिमेसंति"..अबुहा जहिं ।' यहाँ 'अह' (अथ) शब्द अनन्तर अर्थ में है। अर्थात् यहाँ से दूसरा प्रकरण प्रारम्भ होता है । अथवा यहाँ पाठान्तर है--'अहो', जो विस्मयादि बोधक शब्द है । यह पाठ अधिक संगत है । आशय यह है कि अहो आश्चर्य है कि भगवान महावीर के द्वारा इन स्वजनाश्रित संगों को आवर्त (भंवरजाल) बताये जाने पर भी अज्ञानीपुरुष इसी में ही बार-बार फंसकर अपना जीवन दु:खी बना लेता है, जबकि तत्त्वज्ञानी साधक इससे दूर से ही किनाराकशी कर लेता है। आवर्त दो प्रकार का होता है द्रव्यावर्त और भावावर्त । द्रव्य-आवर्त नदी, समुद्र आदि में होने वाले भँवरलाल को कहते हैं, जबकि भावावर्त उत्कट महामोहनीय कर्म के उदय से उत्पन्न सांसारिक विषयभोगों की इच्छा को सिद्ध करने वाली सम्पत्ति, सुख-सुविधाएँ या कामसेवन की विशिष्ट प्रार्थना है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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