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उपसर्गपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन--द्वितीय उद्देशक
४३३ है। फिर तो माता-पिता आदि स्वजनों के संग में ग्रस्त असमर्थ व्यक्ति गृहस्थजीवन में फंसकर फिर उसी क्लेश परम्परा में पड़ा रहता है। उसे अपनी आत्मा के कल्याण की बात ही नहीं सूझती।
मूल पाठ तं च भिक्खू परिन्नाय, सव्वे संगा महासवा । जीवियं नावकंखिज्जा, सोच्चा धम्ममणुत्तरं ॥१३॥
संस्कृत छाया तं च भिक्षुः परिज्ञाय, सर्वे संगा: महाश्रवाः। जीवितं नावकांक्षेत, श्रु त्वा धर्ममनुत्तरम् ॥१३।।
अन्वयार्थ (भिक्खू) साधु (तं च) उस ज्ञाति सम्बन्ध को (परित्राय) भली-भाँति जान कर छोड़ देते हैं। क्योंकि (सव्वे संगा) सभी संग (महासवा) कर्म के महान् आस्रवद्वार हैं। (अणुत्तरंधम्म) सर्वोत्तम धर्म को (सोच्चा) सुनकर साधु (जीवियं) असंयमी जीवन की (नावकंखिज्जा) इच्छा न करे।
भावार्थ साधु उक्त ज्ञातिजनों के संग (सम्बन्ध) को संसार का कारण जान कर छोड़ दे । क्योंकि सभी संग-संसर्ग सम्बन्ध, कर्मबन्ध के महान् आस्रवद्वार होते हैं । अतः साधु इस सर्वोत्तम आर्हद्धर्म को सुनकर असंयमी जीवन को इच्छा न करे।
व्याख्या
संगों से बचो, असंयमी जीवन में मत पड़ो स्वजनों का संसर्ग संसार का प्रधान कारण है। इस बात को ज्ञपरिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यानपरिज्ञा से त्याग दे, क्योंकि जितने भी संग हैं, वे सभी कर्मों के महान् आस्रव (आगमन) द्वार हैं।
__इस प्रकार के स्वजन संसर्गरूप अनुकल उपसर्ग से छूटने के लिए साधक को क्या करना चाहिए ? इस सम्बन्ध में शास्त्रकार कहते हैं ----'जीवियं नावकंखिज्जा।' अर्थात् अनुकूल उपसर्ग आने पर साधक असंयमी जीवन की यानी गृहवासरूप पाशबंधन की इच्छा न करे तथा प्रतिकूल उपसर्ग आने पर जीवन की इच्छा न करे । अथवा साधु श्रुत-चारित्ररूप धर्म, जो सबसे उत्कृष्ट एवं मुनीन्द्र प्रतिपादित है, उसे सुनकर असत्कर्म के अनुष्ठानपूर्वक सांसारिक जीवन की आकांक्षा न करे।
निष्कर्ष यह है कि जब से ये और इस प्रकार के स्वजन आदि द्वारा कृत अनुकूल उपसर्ग आए साधक एकदम सावधान हो जाय, एक ही झटके में उसे या
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