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________________ ४३२ सूत्रकृतांग सूत्र विविध अनुरोधों से उनके मोह सम्बन्ध में बँध जाता है, तब पहले उसका मन पुन: गृहवास में लगाने के लिए उसके मनोनुकूल आचरण करते हैं, उसे सन्तुष्ट करते हैं। जैसे नये-नये पकड़े हुए हाथी को सन्तुष्ट करने के लिए लोग ईख का टुकड़ा आदि मधुर आहार देकर उसकी सेवा करते हैं। इस सम्बन्ध में दूसरा दृष्टान्त देकर शास्त्रकार समझाते हैं-जैसे नई ब्याई हई (प्रसूता) गाय अपने बछड़े के पास ही पास रहती है, उसके पीछे-पीछे भागती रहती है, इसी प्रकार प्रव्रज्या छोड़कर आए हुए नये गृहस्थ को परिवार वाले नया जन्मा हुआ मानकर उसके अनुकूल व्यवहार करते हैं, उसके पीछे-पीछे फिरते हैं। वह जिस मार्ग से जाता है, उसी से वे भी जाते हैं । मतलब यह है कि परिवार के लोग उसको अकेला नहीं छोड़ते, ताकि उसके परिणाम बदल न जाएँ। मूल पाठ एते संगा मणुस्साणं पायाला इव अतारिमा । कीवा जत्थ य किस्संति, नाइसंगेहि मुच्छिया ॥१२॥ संस्कृत छाया एते संगाः मनुष्याणां पाताला इवाऽतार्याः । क्लीवाः यत्र क्लिश्यन्ति, ज्ञातिसंगैच्छिताः ।।१२।। ___ अन्वयार्थ (एते) ये (संगा) माता-पिता आदि स्वजनों के संग (मणुस्साणं) मनुष्यों के लिए (पायाला इव अतारिमा) समुद्र के समान दुस्तर हैं । (जत्थ) जिसमें (नाइसंगेहिं) ज्ञाति जनों के संसर्ग में (मुच्छ्यिा ) आसक्त होकर (कीवा) अल्पसत्त्वसाधक (किस्संति) क्लेश पाते हैं। भावार्थ ये माता-पिता आदि स्वजनो के प्रति आसक्ति समुद्र के समान मनुष्य के द्वारा दुस्तर होती है। इस संग में पड़कर अल्पपराक्रमी सुख-सुविधापरायण व्यक्ति क्लेश पाते हैं। व्याख्या समुद्रवत् दुस्तर संग में पड़ा हुआ साधक । एते संगा मणुस्साणं-'सज्यन्ते इति संगाः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो जीव को बाँध लेता है, फंसा लेता है, उसे संग कहते हैं । माता-पिता आदि स्वजनवर्ग के सम्बन्ध-संसर्ग को संग कहते हैं । यह संग कर्मबन्ध के जाल में फंसाता है। इसीलिए इसे अतल समुद्र के समान मनुष्यों द्वारा दुस्तर कहा है । इस प्रकार के संग में एक बार फँस जाने के बाद फिर साधक का उसके चंगुल से छूटना अत्यन्त दुष्कर होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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