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सूत्रकृतांग सूत्र
विविध अनुरोधों से उनके मोह सम्बन्ध में बँध जाता है, तब पहले उसका मन पुन: गृहवास में लगाने के लिए उसके मनोनुकूल आचरण करते हैं, उसे सन्तुष्ट करते हैं। जैसे नये-नये पकड़े हुए हाथी को सन्तुष्ट करने के लिए लोग ईख का टुकड़ा आदि मधुर आहार देकर उसकी सेवा करते हैं।
इस सम्बन्ध में दूसरा दृष्टान्त देकर शास्त्रकार समझाते हैं-जैसे नई ब्याई हई (प्रसूता) गाय अपने बछड़े के पास ही पास रहती है, उसके पीछे-पीछे भागती रहती है, इसी प्रकार प्रव्रज्या छोड़कर आए हुए नये गृहस्थ को परिवार वाले नया जन्मा हुआ मानकर उसके अनुकूल व्यवहार करते हैं, उसके पीछे-पीछे फिरते हैं। वह जिस मार्ग से जाता है, उसी से वे भी जाते हैं । मतलब यह है कि परिवार के लोग उसको अकेला नहीं छोड़ते, ताकि उसके परिणाम बदल न जाएँ।
मूल पाठ एते संगा मणुस्साणं पायाला इव अतारिमा । कीवा जत्थ य किस्संति, नाइसंगेहि मुच्छिया ॥१२॥
संस्कृत छाया एते संगाः मनुष्याणां पाताला इवाऽतार्याः । क्लीवाः यत्र क्लिश्यन्ति, ज्ञातिसंगैच्छिताः ।।१२।।
___ अन्वयार्थ (एते) ये (संगा) माता-पिता आदि स्वजनों के संग (मणुस्साणं) मनुष्यों के लिए (पायाला इव अतारिमा) समुद्र के समान दुस्तर हैं । (जत्थ) जिसमें (नाइसंगेहिं) ज्ञाति जनों के संसर्ग में (मुच्छ्यिा ) आसक्त होकर (कीवा) अल्पसत्त्वसाधक (किस्संति) क्लेश पाते हैं।
भावार्थ ये माता-पिता आदि स्वजनो के प्रति आसक्ति समुद्र के समान मनुष्य के द्वारा दुस्तर होती है। इस संग में पड़कर अल्पपराक्रमी सुख-सुविधापरायण व्यक्ति क्लेश पाते हैं।
व्याख्या
समुद्रवत् दुस्तर संग में पड़ा हुआ साधक
। एते संगा मणुस्साणं-'सज्यन्ते इति संगाः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो जीव को बाँध लेता है, फंसा लेता है, उसे संग कहते हैं । माता-पिता आदि स्वजनवर्ग के सम्बन्ध-संसर्ग को संग कहते हैं । यह संग कर्मबन्ध के जाल में फंसाता है। इसीलिए इसे अतल समुद्र के समान मनुष्यों द्वारा दुस्तर कहा है । इस प्रकार के संग में एक बार फँस जाने के बाद फिर साधक का उसके चंगुल से छूटना अत्यन्त दुष्कर होता
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