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________________ उपसर्गपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन-द्वितीय उद्देशक ४३१ वैसे ही साधक के माता, पिता, भाई-भाभी, पत्नी-पुत्र आदि करुणाजनक एवं मोहोत्पादक वचनों से उसके चित्त में संयम एवं साधुधर्म के प्रति असमाधि- अरुचिउदविग्नता पैदा कर देते हैं और उसी असमाधि के द्वारा उसे बाँध लेते हैं । वास्तव में देखा जाय तो स्वजन सम्बन्धी उक्त साधु के मित्र नहीं, अमित्र हैं। जैसे कि एक अनुभवी ने कहा है--- अमित्तो मित्तवेसेणं कंठे घेत्तू ण रोयइ । मा मित्ता! सोग्ग जाहि, दोवि गच्छामु दुग्गई। अर्थात्-- वस्तुतः परिवारवर्ग मित्र नहीं, अमित्र है । वह मित्र की तरह कण्ठ में लिपट कर रोता है। मानो वह कहता है कि मित्र ! तु म सद्गति में मत जाओ, हम दोनों ही साथ-साथ दुर्गति में चलें। मल पाठ विबद्धो नातिसंगेहि, हत्थीवावी नवग्गहे : पिट्ठतो परिसप्पंति, सुयगोव्व अदूरए ।।११।। संस्कृत छाया विबद्धो ज्ञातिसंगैर्हस्ती वाऽपि नवग्रहे । पृष्ठतः परिसर्पन्ति सूतगौरिवादूरगा ।।११।। अन्वयार्थ (नाइसंगहि) माता-माता आदि स्वजनवर्ग के सम्बन्ध द्वारा (विबद्धो) बँधे हुए (पिठ्ठतो) पीछे-पीछे (परिसप्पंति) स्वजनवर्ग चलते हैं और (नवग्गहे हत्थीव) नवीन ग्रहण किये हुए हाथी के समान उसके अनुकूल आचरण करते हैं । तथा (सुयगोव्वअदूरए) नई ब्याई हुई गाय जैसे अपने बछड़े के पास ही रहती है, उसी तरह परिवारवर्ग उसके पास ही रहते हैं। भावार्थ जो पुरुष माता-पिता आदि स्वजनवर्ग के मोह में पड़कर प्रव्रज्या छोड़कर फिर घर में चला जाता है, उसके पारिवारिक जन नये पकड़े हुए हाथी के समान बहुत ही खातिरदारी करते हैं और उसके पीछे-पीछे फिरते हैं। तथा जैसे नई ब्याई हुई गाय अपने बछड़े के पास ही पास रहती है, वैसे परिवारवाले भी उसके पास ही रहते हैं। उसे जरा-सा भी इधर-उधर अकेला नहीं छोड़ते। व्याख्या गृहस्थ में फंस जाने के बाद साधक की स्थिति जब साधक संयम को तिलांजलि देकर माता-पिता आदि स्वजनों के पूर्वोक्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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