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सूत्रकृतांग सूत्र
हैं-समझाते हैं । तत्पश्चात् अपने उन ज्ञातिजनों - कुटुम्बीजनों की आसक्तियों के बन्धनों से विशेषरूप से बँधा हुआ गुरुकर्मी साधक उस निमित्त को लेकर प्रव्रज्या छोड़कर घर की ओर शीघ्र जाने लगता है ।
व्याख्या
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प्रव्रज्या छोड़कर घर की ओर दौड़
इस गाथा में अपरिपक्व एवं गुरुकर्मी साधक की स्वजनों के प्रति मोहबन्धनों के कारण होने वाली मनोदशा का क्रम बताया गया है - 'इच्चेव णं पहावइ ।' आशय यह है कि पूर्व गाथाओं में बताया गया है कि स्वजनों द्वारा किसकिस तरीके से साधक को अपनी ओर खींचा जाता है । उन सबका परिणाम अथवा कच्चे साधक पर होने वाला प्रभाव बताते कि स्वजनों के पूर्वोक्त करुणोत्पादक वचनों को सुन-सुनकर साधु का हृदय जाता है, पूर्व संस्कारवश वह भी उन स्वजनों के मोहबन्धन में बँधकर संयमपालन से फिसल जाता है । साधक के हृदय में स्वजन लोग एक ही बात को विभिन्न पहलुओं से समझाकर ठसा देते हैं । अतः वह प्रव्रज्या को छोड़कर पुनः गृहपाश में बँध जाता है ।
इस गाथा में हुए कहा है
करुणा से
विह्वल हो
मूल पाठ
जहा रुक्खं वणे जायं, मालुया पडिबंधइ 1 एवं णं पडिबंधंति, णातओ असमाहिणा ॥ १०॥
संस्कृत छाया
यथा वृक्षं वने जातं, मालुका प्रतिबध्नाति । एवं प्रतिबध्नन्ति, ज्ञातयोऽसमाधिना
अन्वयार्थ
( जहा ) जैसे (वणे जायं ) वन में उत्पन्न ( रुक्खं) वृक्ष को ( मालुआ) लता ( पडबंध) बाँध लेती है, ( एवं ) इसी तरह (णातओ) ज्ञाति वाले स्वजन ( असमा - हिणा ) साधक के चित्त की समाधि भंग करके - असमाधि उत्पन्न करके ( पडबंधंति ) बाँध लेते हैं ।
भावार्थ
जैसे जंगल में पैदा हुए वृक्ष को बेल लिपटकर बाँध लेती है, वैसे ही ज्ञातिजन - कौटुम्बिक लोग साधक के चित्त में असमाधि पैदा करके उसे
ते हैं
व्याख्या
बन्यवृक्ष को लता और साधक को स्वजन बाँध लेते हैं
112011
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जैसे जंगल में पैदा हुए पेड़ के चारों ओर लिपटकर बेल उसे बाँध लेती है,
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