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________________ सूत्रकृतांग सूत्र हैं-समझाते हैं । तत्पश्चात् अपने उन ज्ञातिजनों - कुटुम्बीजनों की आसक्तियों के बन्धनों से विशेषरूप से बँधा हुआ गुरुकर्मी साधक उस निमित्त को लेकर प्रव्रज्या छोड़कर घर की ओर शीघ्र जाने लगता है । व्याख्या ४३० प्रव्रज्या छोड़कर घर की ओर दौड़ इस गाथा में अपरिपक्व एवं गुरुकर्मी साधक की स्वजनों के प्रति मोहबन्धनों के कारण होने वाली मनोदशा का क्रम बताया गया है - 'इच्चेव णं पहावइ ।' आशय यह है कि पूर्व गाथाओं में बताया गया है कि स्वजनों द्वारा किसकिस तरीके से साधक को अपनी ओर खींचा जाता है । उन सबका परिणाम अथवा कच्चे साधक पर होने वाला प्रभाव बताते कि स्वजनों के पूर्वोक्त करुणोत्पादक वचनों को सुन-सुनकर साधु का हृदय जाता है, पूर्व संस्कारवश वह भी उन स्वजनों के मोहबन्धन में बँधकर संयमपालन से फिसल जाता है । साधक के हृदय में स्वजन लोग एक ही बात को विभिन्न पहलुओं से समझाकर ठसा देते हैं । अतः वह प्रव्रज्या को छोड़कर पुनः गृहपाश में बँध जाता है । इस गाथा में हुए कहा है करुणा से विह्वल हो मूल पाठ जहा रुक्खं वणे जायं, मालुया पडिबंधइ 1 एवं णं पडिबंधंति, णातओ असमाहिणा ॥ १०॥ संस्कृत छाया यथा वृक्षं वने जातं, मालुका प्रतिबध्नाति । एवं प्रतिबध्नन्ति, ज्ञातयोऽसमाधिना अन्वयार्थ ( जहा ) जैसे (वणे जायं ) वन में उत्पन्न ( रुक्खं) वृक्ष को ( मालुआ) लता ( पडबंध) बाँध लेती है, ( एवं ) इसी तरह (णातओ) ज्ञाति वाले स्वजन ( असमा - हिणा ) साधक के चित्त की समाधि भंग करके - असमाधि उत्पन्न करके ( पडबंधंति ) बाँध लेते हैं । भावार्थ जैसे जंगल में पैदा हुए वृक्ष को बेल लिपटकर बाँध लेती है, वैसे ही ज्ञातिजन - कौटुम्बिक लोग साधक के चित्त में असमाधि पैदा करके उसे ते हैं व्याख्या बन्यवृक्ष को लता और साधक को स्वजन बाँध लेते हैं 112011 Jain Education International जैसे जंगल में पैदा हुए पेड़ के चारों ओर लिपटकर बेल उसे बाँध लेती है, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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