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________________ उपसर्गपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन-द्वितीय उद्देशक ४२६ भी सब (समीकतं) हमने बाँट-बाँटकर बराबर कर दिया है --उतार दिया है। (ववहाराइ) व्यवहार के योग्य (हिरण्णं) जो सोना-चाँदी आदि हैं, (तं पि) वह भी (ते) तुम्हें (वयं) हम लोग (दाहामु) देंगे। भावार्थ हे तात ! तुम पर जो ऋण था, वह भी हम लोगों ने बराबर बाँटकर उतार दिया है। तथा तुम्हारे व्यवहार के लिए जितने भी हिरण्य (सोनाचाँदी) आदि द्रव्य की आवश्यकता होगी, वह भी हम लोग तुम्हें देंगे। व्याख्या द्रव्य का लोभ देकर गृहवास का अनुरोध इस गाथा में साधक को उसके स्वजन द्रव्यलोभ देकर गृहवास का अनुरोध करते हैं-बेटा ! तुम पर जो कर्ज था, वह भी हम लोगों ने अपने-अपने हिस्से में बराबर बँटवारा करके च का दिया है, अथवा तुम पर जो भारी ऋण था, जिसके चुकाने के भय से तुमने घरबार छोड़ा था, हम लोगों ने सुगमता से चुकाने की व्यवस्था कर दी । ऋण के भय से यहाँ आए हो तो उस भय को दूर कर दो। इसके अतिरिक्त तुम्हें अगर यह चिन्ता हो कि मेरा व्यापार, घरखर्च आदि व्यवहार कैसे चलेगा ? तो यह चिन्ता करने की भी जरूरत नहीं है। व्यापार आदि व्यवहार के लिए जो हिरण्य (सोना, चाँदी) आदि द्रव्य घर में है, वह हम तुम्हें देंगे । अतएव तुम अवश्य घर चली । जिस निर्धनता के डर से तुमने घर छोड़ा था, वह डर अब दूर हो गया है । अब घर पर रहने में तुम्हारे लिए कोई विघ्नबाधा नहीं है। मूल पाठ इच्चेव णं सुसेहंति कालुणीयसमुठ्यिा । विबद्धो नाइसंगेहिं ततोऽगारं पहावइ ।।। संस्कृत छाया इत्येव सुशिक्षयन्ति कारुण्यसमुपस्थिताः । विबद्धो ज्ञातिसंगैस्ततोऽगारं प्रधावति ।।६।। __ अन्वयार्थ (कालुणीयसमुट्ठिया) करुणा से युक्त बन्धु-बान्धव, (इच्चेव) इसी प्रकार (णं सुसेहति) साधु को शिक्षा देते हैं । (नाइसंगेहि) ज्ञाति जनों के संगों-संसर्गों से (विबद्धो) विशेषरूप से जकड़ा हुआ- स्नेह बंधन में बंधा हुआ साधक (ततो) उस निमित्त से (अगारं) घर की ओर (पहावइ) दौड़ पड़ता है। भावार्थ करुणा से परिपूर्ण बन्धु-बान्धव साधु को पूर्वोक्त प्रकार से शिक्षा देते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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