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________________ ४२८ सूत्रकृतांग सूत्र संस्कृत छाया गत्वा तात ! पुनरागच्छेः, न तेनाथमणः स्याः। अकामकं पराक्रमन्तं, कस्त्वां वारयितुमर्हति ? ।।७।। __ अन्वयार्थ (ताय) हे तात ! (गतुं) एक बार घर जाकर (पुणो गच्छे) फिर आ जाना। (तेण) इससे (ण असमणो सिया) तुम अश्रमण नहीं हो जाओगे । (अकामगं) घर के कामकाज में इच्छारहित होकर (परिक्कम्म) अपनी इच्छानुसार कार्य करते हुए (ते) तुमको (को वारेउमरिहति) कौन रोक सकता है ? भावार्थ हे तात ! तुम एक बार घर चलकर फिर आ जाना । ऐसा करने से तुम अश्रमण नहीं हो जाओगे। घर के काम में इच्छारहित रहकर अपनी रुचि के अनुसार कार्य करने से तुम्हें कौन रोक सकता है ? व्याख्या घर चलने का दूसरी तरह से अनुरोध "हे प्रिय पुत्र ! तुम एक बार घर चलकर अपने स्वजनवर्ग से मिलकर, उन्हें देखकर फिर लौट आना। एक बार घर चलने मात्र से तुम असाधु नहीं हो जाओगे। केवल घर जाने से क्या कोई असाधु हो जाता है ? अगर घर में रहना रुचिकर न हो तो पुन: यहीं आ जाना। यदि तुम्हारी इच्छा गृहकार्य करने की न हो तो तुम्हें अपनी रुचि के अनुसार कार्य करने से कौन रोक सकता है ? तुम्हारी इच्छा वृद्धावस्था में कामेच्छा से निवृत्त होने पर संयमानुष्ठान करने की हो तो तुम्हें कौन मना करता है ? संयमानुष्ठान के योग्य अवसर आने पर तुम्हें कोई रोकटोक नहीं करेगा। लोकव्यवहार में भी कहा जाता है-'वार्धक्ये मुनिवृत्तीनाम्'--- वृद्धावस्था में ही मुनिवृत्ति अंगीकार करना चाहिए। अतः हमारा साग्रह अनुरोध है कि एक बार तुम घर चलो।" मूल पाठ जं किचि अणगं तात ! तंपि सव्वं समीकतं । हिरण्णं ववहाराइ, तंपि दाहामु ते वयं ॥८॥ संस्कृत छाया यत्किंचिद् ऋणं तात ! तत् सर्वं समीकृतम् । हिरण्यं व्यवहारादि, तदपि दास्यामस्ते वयं ।।८।। __ अन्वयार्थ (तात) हे तात ! (जं किंचि अणगं) जो कुछ ऋण था, (तंपि सव्वं) वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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