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________________ उपसर्गपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन -- द्वितीय उद्देशक ४२३ रहे हैं, जो इतने बारीक हैं कि स्थूलदृष्टि से देखने वाला उन्हें उपसर्ग कहने को तैयार नहीं होगा, बल्कि यह कहेगा कि इन उपसर्गों में सहन क्या करना है ? ये उपसर्ग तो बड़े मजे से सहे जा सकते हैं, इनमें मन, वचन, काया को कोई जोर नहीं पड़ता । परन्तु शास्त्रकार साधक को सावधान करने हेतु कहते हैं - साधको ! सावधान रहो । ये उपसर्ग इतने सूक्ष्म हैं कि तुम्हें पता ही नहीं लगने पायेगा और ये चुपचाप तुम्हारी जीवनचर्या में घुस जायेंगे। अगर एक बार ये घुस गये तो फिर इनको निकालना Mast मुश्किल हो जाएगा । ये बड़े मीठे बनकर आते हैं । इनके शस्त्र बड़े तेज हैं । प्रतिकूल उपसर्गों में तो साधक सावधान रह सकता है, पर अनुकूल उपसर्ग को पार करना आसान समझकर वह गाफिल रहता है । इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं. 'अहिमे हुमा संगा, भिक्खुणं जे दुरुत्तरा ।' आशय यह है कि बन्धुवान्धवों का मधुर-मधुर स्नेहस्निग्ध संसर्ग इतना सूक्ष्म होता है कि वह शरीर पर हमला नहीं करता, किन्तु साधक के मन पर कातिलाना हमला करता है । उसके चित्त को विकृत कर देता है । इसीलिए इस संसर्गरूप अनुकूल उपसर्ग को सूक्ष्म यानी आन्तरिक बताया है । प्रतिकूल उपसर्ग तो प्रकटरूप से बाह्यशरीर को विकृत करते हैं । किन्तु यह (अनुकूल) उपसर्ग बाह्यशरीर को विकृत नहीं करता । यहाँ 'संगा' शब्द मातापिता, स्त्री- पुत्र आदि सम्बन्धियों के संसर्ग --: - सम्बन्ध का बोधक है । यह अनुकूल सूक्ष्म उपसर्ग अत्यन्त दुरुत्तर -- दुस्तर इसलिए बताया गया है कि जीवन को संकट में डालने वाले प्रतिकूल उपसर्गों के आने पर तो साधक सावधान होकर मध्यस्थवृत्ति धारण कर सकते हैं, जबकि अनुकूल उपसर्ग आने पर मध्यस्थवृत्ति धारण करना अति कठिन होता है । अनुकूल उपसर्ग बड़े-बड़े साधकों को छल-बल से धर्मभ्रष्ट कर देते हैं । जब अनुकूल उपसर्ग आता है, तब सुकुमार एवं सुखसुविधापरायण कच्चे साधक बहुत जल्दी अपने संयम से फिसल जाते हैं, धर्माराधना से विचलित हो जाते हैं, संयमपालन में शिथिल हो जाते हैं अथवा संयम से सर्वथा भ्रष्ट हो जाते हैं । वे संयम के साथ अपनी जीवनयात्रा करने में समर्थ नहीं होते । वे सदनुष्ठान के प्रति विषण्ण हो जाते हैं, संयमपालन उन्हें दु:खदायी लगने लगता है । इसीलिए इन उपसर्गों को जीतना बड़ा कठिन बताया है । इन्हें जीतने में बड़े-बड़े साधकों का भी धैर्य छूट जाता है । मूल पाठ अप्पेगे नायओ दिस्स, रोयंति परिवारिया पोसणे ताय ! पुट्ठोऽसि, कस्स ताय ! जहासि णे ||२|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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