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________________ ४२४ संस्कृत छाया अप्येके ज्ञातयो दृष्ट्वा रुदन्ति परिवार्य च पोषय नस्तात ! पोषितोऽसि, कस्य तात ! जहासि नः || २ || सूत्रकृतांग सूत्र अन्वयार्थ ( अध्येगे) कई-कई ( नायओ) ज्ञातिजन ( दिस्स) साधु को देखकर ( परिवारिया ) उसे घेरकर ( रोयंति) रोते हैं- विलाप करते हैं । वे कहते हैं - ( ताय ) तात ! (णे पोस ) आप हमारा पालन-पोषण करें। ( पुट्ठोऽसि ) हमने आपका पालनपोषण किया है । (ताय) हे तात ! ( णे) अब हमको (कस्स) आप क्यों (किसलिए ) ( जहासि) छोड़ते हैं ? भावार्थ साधु के पारिवारिकजन उसे देखकर रोते हैं, आँसू बहाते हैं, और कहते हैं - तात ! अब आप हमारा पालन-पोषण करें, हमने बचपन से आपका पालन-पोषण किया है, अब आप हमें किसलिए छोड़ रहे हैं ? व्याख्या पारिवारिकजनों का अपने भरण-पोषण के लिए अनुरोध इस गाथा में स्वजन सम्बन्धी उपसर्ग कैसे-कैसे होते हैं ? किस रूप में आते हैं ? इसे बताने के लिए कहा है - " अप्पेगे नायओ जहासि णे ।" आशय यह है कि कुछ ज्ञातिजन - माता - पिता आदि स्वजनवर्ग साधु को साधुधर्म में दीक्षित होते हुए या दीक्षित हुए देखकर उसे घेरकर जोर-जोर से रोने लगते हैं । स्वजनों का रुदन कच्चे साधक के मन को पिघला देता है । उन स्वजनों की आँखों में आँसू देख - कर उसके मन में आता है— चलो, इनकी भी बात सुन लें । इस प्रकार जब वह साधु उनकी मोहगर्भित पुकार सुनने के लिए उत्सुक होता है तो वे आँखों से अश्रु बहते हुए कहते हैं - बेटा ! हमने बचपन से तुम्हारा इसलिए पालन-पोषण किया था कि बड़े होकर तुम हमारी वृद्धावस्था में सेवा करोगे, हमारा भरण-पोषण करोगे, मगर तुम तो हमें अधबिच में ही छिटकाकर जा रहे हो । चलो, पुत्र ! हमारा भरणपोषण करो । अब हमें छोड़कर क्यों जा रहे हो ? तुम्हारे सिवाय दूसरा कोई हमारा रक्षक - पोषक नहीं है । इस प्रकार का पारिवारिकजनों का मोहगर्भित अनुरोध सुनकर बहुत से साधकों का दिल वापस घर लौटने को मचल उठता है । मूल पाठ पिया ते थेरओ ताय ! ससा ते खुड्डिया इमा । भायरी ते सगा (सवा) ताथ ! सोयरा कि जहासि णे || ३ || Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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