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तृतीय अध्ययन : द्वितीय उद्देशक अनुकूल उपसर्गाधिकार
प्रथम उद्देशक में प्रतिकूल उपसर्गों, विशेषतः परीषहों से सम्बद्ध उपसर्गों के सम्बन्ध में वर्णन किया गया था, अब इस द्वितीय उद्देशक में अनुकूल उपसर्गों के सम्बन्ध में शास्त्रकार कहते हैं, जिसकी प्रथम गाथा इस प्रकार है—
मूल पाठ
अहि
हुमा संगा, भिक्खुणं जे दुरुत्तरा । तत्थ एगे विसीयंति, ण चयंति जवित्तए ॥१॥ संस्कृत छाया
अथेगे सूक्ष्माः संगाः, भिक्षूणां ये दुरुत्तराः ।
तत्र विषीदन्ति न शक्नुवन्ति यापयितुम् ॥ १ ॥ अन्वयार्थ
( अह ) इसके पश्चात् (इमे) ये ( सुहमा ) सूक्ष्म, स्थूल रूप से नहीं प्रतीत होने वाले (संगा) बान्धव आदि के साथ सम्बन्धरूप उपसर्ग होते हैं, (जे) जो (भिक्खूणं) साधुओं के लिए ( दुरुतरा) दुस्तर हैं -- दुरतिक्रमणीय हैं । ( तत्थ ) उन सम्बन्धरूप उपसर्गों के आने पर (एगे) कुछ कच्चे साधक ( विसीयंति) बिगड़ जाते हैं, संयम को विषाक्त कर देते हैं, (जवित्तए) वे संयमी जीवन का निर्वाह करने में (ण चयंति) समर्थ नहीं होते ।
भावार्थ
प्रतिकूल उपसर्गों का वर्णन किये जाने के बाद अब अनुकूल उपसर्गों का वर्णन करते हैं । ये अनुकूल उपसर्ग बड़े सूक्ष्म होते हैं । साधक इन उपसर्गों को बड़ी मुश्किल से पार कर पाते हैं । कई कच्चे साधक तो ऐसे संसर्गरूप उपसर्गों के आने पर झटपट फिसल जाते हैं, संयम से भ्रष्ट हो जाते हैं । वे संयमी जीवन का निर्वाह करने में असमर्थ हो जाते हैं ।
व्याख्या
अनुकूल उपसर्ग : बड़े सूक्ष्म, अत्यन्त दुष्कर
अब शास्त्रकार इस गाथा से शुरू करके ऐसे अनुकूल उपसर्गों का वर्णन कर
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