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सूत्रकृतांग सूत्र
नहीं करेगा | परन्तु निःस्पृही त्यागी साधु को वही लोग पीड़ित करेंगे जिनके आचार आत्मा के लिए अहितकर - यानी दण्ड के योग्य होते हैं, जिनकी मनोवृत्ति मिथ्या भावनाओं में डूबी हुई है, जो जरा-जरा-सी बात में रुष्ट-तुष्ट या राग-द्व ेषयुक्त हो जाते हैं, ऐसे ही प्रकार के कई अनार्य लोग साधु को उपसर्ग-पीड़ा देते हैं ।
'आयदंडसमायारे' -- जिससे आत्मा दण्ड का भागी बनता है, अर्थात् स्वकल्याण से भ्रष्ट हो जाता है, ऐसे आचार को आत्मदण्ड तथा उसका अनुष्ठान करने वालों को 'आत्मदण्डसमाचाराः' कहते हैं ।
'मिच्छासंटियभावणा' - उलटे रूप में जिसने अपनी चित्तवृत्ति जमा दी है, अर्थात् जो अपने असत् आग्रह में है, ऐसे मिथ्यादृष्टि पुरुष 'मिथ्या संस्थितभावनाः ' कहलाते हैं ।
'हरिसप्पओसमावन्न'' – जो हर्ष और द्वेष अर्थात् राग-द्वेष से भरे हैं, जिनकी रग-रग में राग-द्वेष समाया हुआ है, वे हर्षप्रद्वेषसमापन्न होते हैं ।
'लू संति' - ऐसे अनार्य लोग अपने मनोविनोद या द्वेष के कारण या क्रूरकर्मा होने से लाठी आदि के प्रहार से या गालीगलौज करके सदाचारी साधु को तंग किया करते हैं ।
मूल पाठ
अप्पेगे पलियंतेसि चारो चोरोत्ति सुव्वयं । बंधंति भिक्खुयं बाला कसायवयणेहि य ॥ १५॥ संस्कृत छाया
अप्येके पर्यन्ते चारश्चौर इति सुव्रतम् ।
बध्नन्ति भिक्षुकं बालाः कषायवचनैश्च ||१५||
अन्वयार्थ
( अप्पेगे) कई (बाला) अज्ञानी अनार्यजन, (पलियंतेसि ) अनार्यदेश की सर हद (सीमा) पर विचरते हुए (सुब्वयं) सुव्रती साधु को (चारो चोरोत्ति) यह खुफिया है, यह चोर है, इस प्रकार के सन्देह में पकड़कर (बंधंति) रस्सी आदि से बाँध देते हैं (harani) और कटुवचन कहकर उसे पीड़ित करते हैं ।
भावार्थ
कई अनार्य लोग अनार्यदेश के परिपार्श्व में विचरते हुए सुव्रती साधु को देखकर रोष-द्वेषवश उसे चार (गुप्तचर) या चोर समझकर पकड़कर रस्सी से बाँध देते हैं, उसे कठोर वचन कहकर हैरान करते हैं ।
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