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उपसर्गपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन-प्रथम उद्देशक
बार रक्त बह निकलता है। कायर और कच्चा साधक वहीं घबरा जाता है। साधुजीवन की दूसरी कठोर परीक्षा है--ब्रह्मचर्य-पालन की। कहने को तो दीक्षा लेते समय प्रत्येक साधक कह देता है-'ब्रह्मचर्य-पालन क्या कठिन है, मेरे लिए ?' परन्तु जब यौवन के उन्माद के साथ दुर्जय काम का उभार आता है तो बड़े-बड़े साधक शिथिल हो जाते हैं, मानसिक रूप से भी काम के ज्वार को रोकना अत्यन्त कठिन है। इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं---बंभचेरपराजिया, तत्थ मंदा विसीयंति ।' कच्चे नवदीक्षित साधक ब्रह्मचर्य-पालन से हार खा जाते हैं। और इन दोनों उपसर्गों या परीषहों से बार-बार उसी तरह क्लेश का अनुभव करते हैं, जैसे जाल में फंसी हुई मछलियाँ क्लेश पाती हैं । वे अन्दर ही अन्दर प्रायः संयम से भ्रष्ट हो जाते हैं।
मूल पाठ आयदंडसमायारे मिच्छासंठियभावणा । हरिसप्पओसमावन्ना केई लसंतिऽनारिया ॥१४॥
संस्कृत छाया आत्मदण्डसमाचारा: मिथ्यासंस्थितभावना: । हर्ष-प्रदुषमापन्ना: केऽपि लूषयन्त्यनार्याः ।।१४।।
अन्वयार्थ (आयदंडसमायारे) जिस आचार से आत्मा दण्डित होता है वैसा कल्याण से भ्रष्ट आचरण वाले (मिच्छासंठियभावणा) जिनकी भावनाएँ मिथ्या बातों में जमी हुई हैं, (हरिसप्पओसमावन्ना) जो बात-बात में हर्ग-शोक या राग-द्वेष से युक्त हो जाते हैं, ऐसे (केई) कई (अनारिया) अनार्य -धर्मद्रोहीजन (लूसंति) साधु को पीड़ा-तकलीफ देते हैं।
भावार्थ जिससे आत्मा दण्डभागी बनती हो, ऐसे दूषित आचार वाले, कल्याणमार्ग से भ्रष्ट, जिनकी भावना मिथ्या बातों में टिकी हई है, तथा जो बात-बात में हर्ष (राग) द्वष से युक्त हो जाते हैं ऐसे कई अनार्य धर्मद्रोही जन साधु को तकलीफ देते हैं।
व्याख्या
साधु को उपसर्ग (पीड़ा) देने वाले ! साधु को अपनी संयमयात्रा के दौरान कई प्रकार के कड़वे मीठ अनुभव होते हैं । कई बार तो बहुत जहरीली चूटे उसे पीनी पड़ती हैं। साधु को यह भली-भाँति जान लेना चाहिए कि जो धर्मात्मा या, आर्यपुरुष होगा वह सहसा साधु को पीड़ित
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