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________________ सूत्रकृतांग सूत्र कोंकण आदि देशों में बहुत मच्छरों एवं डांसों से वास्ता पड़ता है । वे साधु के शरीर पर हमला करते हैं, साथ ही घास की शय्या पर नवदीक्षित साधु सोता है तो उसका खुर्दरा स्पर्श चुभता है । उस तीक्ष्ण स्पर्श एवं मच्छरों के उपद्रव के कारण नया-नया साधु झुझला उठता है । वह प्रायः ऐसा सोचता है कि "आखिरकार यह सब कष्ट मैं क्यों सहन कर रहा हूँ ? व्यर्थ ही अपने आपको क्यों कष्ट में डाला जाय? यह कष्टसहन भी तभी सार्थक है, जब परलोक हो। परलोक तो मैंने देखा ही नहीं और न कोई अभी तक परलोक से लौटकर मुझे वहाँ की बातें बताने ही आया है ? प्रत्यक्ष से जब परलोक को नहीं देखा, तो परलोक का अनुमान भी नहीं हो सकता। इसलिए मेरे इस व्यर्थ कष्टसहन का नतीजा सिर्फ मेरी मृत्यु के सिवाय और कोई नहीं हो सकता।” इस प्रकार सोचकर अल्पसत्त्व कायर साधक परीषहसहन का मार्ग छोड़कर सुकुमार एवं असंयमी बन जाता है। मूल पाठ संतत्ता केसलोएणं, बंभचेरपराइया तत्थ मंदा विसीयंति मच्छा विद्धा' व केयणे ॥१३॥ संस्कृत छाया संतप्ता: केशलुञ्चनेन ब्रह्मचर्य-पराजिताः । तत्र मन्दाः विषीदन्ति मत्स्या विद्धा इव केतने ।।१३।। अन्वयार्थ (केसलोएणं) केशलुञ्चन से (संतत्ता) पीड़ित (बंभचेरपराईया) ब्रह्मचर्यपालन में हार खाये हुए (मंदा) अल्पपराक्रमी मूढ़ साधक (केयणे) जाल में (विदधा) फंसी हुई (मच्छा) मछलियों की तरह (तत्थ विसीयंति) मुनिधर्म में क्लेश का अनुभव करते हैं। भावार्थ केशलोंच से पीड़ित और ब्रह्मचर्यपालन में असमर्थ अल्पसत्त्व साधक प्रव्रज्या लेकर इस प्रकार क्लेश पाते हैं, जैसे जाल में फँसी हई मछलियाँ तड़पती हैं। व्याख्या कितना दुष्कर है केशलोंच और ब्रह्मचर्य-पालन ! नवदीक्षित साधक के सामने सर्वप्रथम दीक्षा के बाद सबसे कठोर परीक्षा का समय आता है तो केशलोंच का ! केशों को जब जड़ से उखाड़ा जाता है, तो कई १. यहाँ 'विद्धा' के बदले 'विट्ठा' पाठ भी मिलता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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