________________
उपसर्गपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन-~-प्रथम उद्देशक
४१५
लोग अज्ञानरूप अन्धकार से निकलकर उससे भी गाड़ अज्ञानान्धकार में चले जाते हैं । तात्पर्य यह है कि ऐसे लोग ज्ञानावरणीय कर्न से ढके हुए मिथ्यादर्शनरूपी मोह से आच्छादित हो जाते हैं, इस कारण वे अन्ध (विवेकान्ध) होकर साधु और सद्धर्म से द्वेष करने के कारण कुमार्ग का सेवन करके और अधिक मोहावृत होकर अधमाधम गति में जाते हैं। विद्वानों ने कहा है--
एक हि चक्षुरमलं सहजो विवेकः तद्वद्भिरेव सह संवसतिद्वितीयम् । एतद्वयं भुवि न यस्य स तत्त्वतोऽन्धःतस्यापमार्गचलने खलु कोऽपराधः ? ॥
अर्थात् एकः पवित्र आँख तो सहजविवेक हैं, और दूसरी आँख है, विवेक वानों के साथ निवास । मगर जिसके पास ये दोनों नेत्र नहीं हैं, वह वस्तुतः अन्धा है, अगर वह बेचारा कुमार्ग पर चलता है तो उसका क्या दोष है ?
___ यही बात उन साधु एवं सन्मार्ग के द्रोही अज्ञों के सम्बन्ध में कही जा सकती है।
मूल पाठ पुठो य दंसमसएहि, तणफासमचाइया । न मे दिठे परे लोए, जइ परं मरणं सिया ॥१२॥
संस्कृत छाया स्पृष्टश्च दंश-मशकैस्तृणस्पर्शमशक्नुवन् । न मया दृष्ट: परो लोकः, यदि परं मरणं स्यात् ॥१२॥
___ अन्वयार्थ (दंसमसहि) डांस और मच्छरों द्वारा (ठो) स्पर्श पाकर या काटे जाने पर तथा (य तणफासमचाइया) तृणस्पर्श को भी नहीं सह सकता हुआ साधु (यह भी सोच सकता है कि) (मे) मैंने (परे लोए) परलोक को तो (न दिळे) नहीं देखा, (परं जइ) परन्तु यदि कदाचित् (मरणं) इस कष्ट से मृत्यु (सिया) तो सम्भव ही है।
भावार्थ डांस और मच्छरों का तीखा स्पर्श पाकर तथा तृण की शय्या का खुदरा स्पर्श पाकर उसे सहन न करता हुआ नवीन साधु यह भी सोचता है कि मैंने परलोक को तो प्रत्यक्ष नहीं देखा है, परन्तु इस कष्ट से मरण तो साक्षात् दीखता है।
व्याख्या ___ दंशमशक आदि परीषहों के समय कायर साधक का चिन्तन साधक-जीवन में साधु अनेक देशों में विचरण करता है। सिन्धु, ताम्रलिप्ति,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org