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सूत्रकृतांग सूत्र
नंगे हैं, दूसरों के पिण्ड पर पलते हैं--टुकड़े ल हैं, अधम हैं, सिर मुंड़े हुए हैं, खुजली से इनके अंग क्षतविक्षत हैं, सूखा पसीना शरीर पर जम जाने के कारण बदबू से भरे, वीभत्स - भद्द हैं ।
व्याख्या
अनार्यों द्वारा प्रयुक्त ये कठोर वाक्य !
कई अनाड़ी और साधुजनों की चर्या से अनभिज्ञ लोग कहते हैं - ये जिनकल्पी आदि लोग नंगे हैं, पराये अन्न पर जीते हैं, पेटू हैं, सिर मुंडे हैं, खुजली से इनके अंग-अंग गल गए हैं, स्नान न करने के पसीने के कारण शरीर पर मैल जमा है, ये गंदे और घिनौने हैं । प्राणियों को असमाधि पैदा
करने वाले हैं ।
जो लोग साधु के लिए ऐसी बातें करते हैं, उनको इसका क्या फल प्राप्त होता है ? इसे शास्त्रकार अगली गाथा में कहते हैं
मूल पाठ
बड़े नीच हैं, कारण सूखे
एवं विप्पविन्न, अप्पण। उ अजाणया 1 तमाओ ते तमं जंति, मंदा मोहेण पाउडा ॥११॥ संस्कृत छाया
1
एवं विप्रतिपन्ना एक आत्मनात्वज्ञकाः तमसस्ते तमो यान्ति, मन्दाः मोहेन प्रावृताः ।। ११ । ।
अन्वयार्थ
( एवं ) इस प्रकार ( विडिवन्ना) साधु और सन्मार्ग के द्रोही, ( एगे ) कोई ( अपणा उ अजाणया) स्वयं अज्ञ जीव (मोहेण पाउडा ) मोह से घिरे हुए हैं, (मंदा) विवेकमूढ़ हैं, (ते) वे ( तमाओ ) अज्ञानान्धकार से निकलकर (तमं ) फिर अज्ञानतिमिर में ही ( अंति) जाते हैं ।
भावार्थ
इस प्रकार साधुजन और धर्ममार्ग से द्रोह करने वाले स्वयं अज्ञानी जीव मोह से घिरे हुए विवेकमूढ़ हैं। वे एक अज्ञानान्धकार से निकलकर दूसरे अज्ञानतिमिर में जाकर गिरते हैं ।
व्याख्या
साधुविद्रोहीजनों के कुकृत्यों के फल
जो पापात्मा तथा साधुसन्त एवं सन्मार्ग के विरोधी लोग जो द्रोह करते हैं, वे स्वयं साधुजीवन एवं धर्मपथ से बिलकुल अज्ञ हैं । वे स्वयं तो विवेकमूढ़ एवं मोह से घिरे हुए होते हैं, दूसरे ज्ञानी पुरुषों के कथन को भी नहीं मानते हैं । ऐसे मूढ़
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