________________
उपसर्गपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन-प्रथम उद्देशक
४१३ भिक्षु लोग (एवंजीविणो) इस प्रकार भिक्षुवृत्ति से जी रहे हैं, (एते) ये लोग (पडियारगता) अपने पूर्वकृत पापकर्मों का बदला चुका रहे हैं।
भावार्थ साधुजनों के प्रति द्रोह करने पर उतरे हए कछ लोग उन्हें देखकर इस प्रकार विपरीत वोलने लगते हैं कि ये घर-घर घूमकर भिक्षा माँगकर जीवन निर्वाह करते हैं, यह इसलिए कि ये लोग अपने पूर्वकृत पापकर्मों का फल भोग रहे हैं।
व्याख्या
साधु-विदुषीजनों द्वारा वाक्प्रहार के समय .. इस गाथा में फिर विद्वेषी लोगों द्वारा कृत उपसर्गों के समय कच्चे साधक की मनःस्थिति का वर्णन करते हैं - 'अप्पेगे...." एवं जीविणो ।' आशय यह है कि गाँव में कई लोग साधुओं के प्रति द्वषवश विद्रोह पर उतर आते हैं और उन्हें छेड़ने के लिहाज से यों कहने लगते हैं- "अजी, देखो, इन भिखमंगों को, ये भिक्षा के लिए घर-घर क्यों घूमते हैं, और क्यों गृहस्थ द्वारा दिया हुआ रूखा-सूखा आहार लेते हैं । ये मुडित मस्तक साधु भोगों से वञ्चित रहकर क्यों दुःखमय जीवनयापन करते हैं ? हमें पता है, ये लोग अपने पूर्वजन्मों में या पहले किये हुए पापकर्मों का फल भोग कर बदला चुका रहे हैं।' इस प्रकार उक्त अनार्यों तथा विद्वषी लोगों के आक्षेपात्मक कटुवचन या वाक्प्रहार साधुओं के प्रति सम्भव है। 'अपि' शब्द यहाँ सम्भावना अर्थ में है।
मूल पाठ अप्पेगे वइ जुंजंति, नगिणा पिंडोलगाऽहमा । मुंडा कंडूविणठेंगा उज्जल्ला असमाहिया ॥१०॥
____संस्कृत छाया अप्येके वचो युजन्ति नग्नाः पिण्डोलगा अधमाः । मुण्डा कण्डविनष्टांगा उज्जल्ला असमाहिताः ॥१०॥
___अन्वयार्थ (अप्पेगे) कोई-कोई (वइ जुंजंति) ऐसा वचन प्रयोग करते हैं कि ये लोग (नगिणा) नंगे हैं, (पिंडोलगा) परपिण्ड पर पलने वाले -टुक डैल हैं, (अहमा) तथा अधम हैं, (मंडा) ये मुण्डित हैं, (कंडूविणटुंगा) खुजली से इनके अंग गल गए हैं, (उज्जल्ला) सूखे पसीने से युक्त और (असमाहिया) असुहावने—वीभत्स हैं ।
भावार्थ कोई-कोई पुरुष जिनकल्पी आदि साधुओं को देखकर कहते हैं-'ये
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org