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भारता
उपसर्गपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन ----प्रथम उद्देशक
___४११ संस्कृत छाया एतान् शब्दान् अशक्नुवन्तो ग्रामेष नगरेष वा। तत्र मन्दाः विषीदन्ति, संग्रामे इव भीरुकाः ।।७।।
अन्वयार्थ (गामेसु) गांवों में (नयरेसु वा) अथवा नगरों में (एते सद्दे) इन आक्रोशकारी शब्दों को (अचायंता) सहन न कर सकते हुए (मंदा) अल्पसत्त्व कच्चे साधक, (तत्थ) उन तीखे व्यंग्यबाणों को न सहने के कारण (विसीयंति) इस प्रकार विषाद पाते हैं, (संगामंमिव) जैसे संग्राम में (भीरुया डरपोक लोग विषाद पाते हैं ।
भावार्थ ___ गाँव-गाँव में या नगर-नगर में जहाँ भी अल्पसत्त्व साधक इन आक्रोशजनक शब्दों को सुनकर सहन नहीं कर सकने के कारण इस तरह विषाद पाते हैं, जिस तरह युद्ध में कायर पुरुष विषाद पाता है ।
व्याख्या
ये आक्रोश परीषह एवं उपसर्ग सहने में कायर साधक ! जो नाजुक एवं तुच्छ प्रकृति के कच्चे साधक होते हैं, वे नगरों और गाँवों में गँवार लोगों के ताने और आक्रोशभरे शब्दों को सुनकर झुझला उठते हैं, वे उनके निन्दा और आक्षेप से युक्त व्यंग्यबाणों को सुनकर उन्हें सहने में असमर्थ होकर या तो खिन्न होकर बैठ जाते हैं, या फिर वे गुस्से से आगबबूला होकर उन लोगों से वादविवाद करने लग जाते हैं, कभी-कभी गाली-गलौज पर भी उतर आते हैं। इस प्रकार उन अपरिपक्व एवं कायर साधकों की स्थिति ऐसी हास्यास्पद एवं विकट हो जाती है, जैसी कायर और भगोड़े सैनिकों की युद्धक्षेत्र में पहुँचकर संग्राम में जब तलवारें चमकती हैं, भाले, बाण आदि शस्त्रास्त्र उछलने लगते हैं तथा जुझारू बाजे बजने लगते हैं, तब होती है। इसी प्रकार नवदीक्षित साधक भी कलेजे में तीर-से चुभने वाले आक्रोशजनक शब्दों को सुनकर अपयश स्वीकार करके भी अपने संयमक्षेत्र से भाग खड़े होते हैं। अब सूत्रकार वध परीपह अथवा उपसर्ग के बारे में कहते हैं
मूल पाठ अप्पेगे खुधियं भिक्खुं, सुणी डंसति लुसए। तत्थ मंदा विसीयंति, तेउपुटठा व पाणिणो ॥८॥
संस्कृत छाया अप्येकः क्षुधितं भिक्षु, शुनी दशति लूषकः । तत्र मन्दा: विषीदन्ति, तेजःस्पृष्टाः इव प्राणिनः ।।८।।
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