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सूत्रकृतांग सूत्र
खिज्जइ मुखलावण्णं, वाया घोलेइ कंठमझंमि । कहकहकहेइ हिय यं, देहित्ति परं भणंतस्स ।। गतिभ्रंशो मुखे दैन्यं, गात्रस्वेदो विवर्णता ।
मरणे यानि चिह्नानि, तानि चिह्नानि याचके । अर्थात्--भिक्षाजीवी साधु जब किसी के द्वार पर याचना करने जाता है, तब उसका गौरव समाप्त हो जाता है। इसलिए मुह की कान्ति फीकी पड़ जाती है। वाणी कण्ठ के बीच में ही डोलती रहती है, सहसा यह नहीं कहा जाता कि 'अमुक वस्तु मुझे दो'। उसका हृदय धक-धक करने लगता है। फिर मांगने के लिए जाते समय ही उसके पैर लड़खड़ाने लगते हैं, उसका मुख दीन हो जाता है, शरीर में पसीना छूटने लगता है, चेहरा फीका पड़ जाता है, इस प्रकार मरने के समय जो चिह्न दिखाई देते हैं, वे सब याचक पुरुष में परिलक्षित होते हैं। कवि रहीम ने एक दोहे में कह दिया है
रहिमन वे नर मर चुके, जो कहुँ माँगन जाहि ।
उनते पहले वे मुए, जिन मुख निकसत नाहिं ।। इस प्रकार दुःसह याचना परीषह को सहकर निरभिमानी महासत्त्व साधक ही ज्ञानादि की वृद्धि के लिए महापुरुषों द्वारा आचरित मार्ग के अनुगामी बनते हैं।
अब शास्त्रकार गाथा के उत्तरार्द्ध में आक्रोश परीषह अथवा एक प्रकार का मनुष्यकृत उपसर्ग के समय कच्चे साधक की मनोदशा बताते हैं । साधारण गंवार आदमी भिक्षा के लिए जाते हुए साधु को देखकर ताना मारते हुए कहते हैं ---"अरे! ये मैले-कुचैले कपड़ों वाले, दुर्गन्धपूर्ण शरीर, मुंडे हुए मस्तक वाले, भूखे-प्यासे बेचारे भिखमंगे साधु अपने पूर्वकृत कर्मों से पीड़ित हैं। ये अपने किये हुए पापकर्मों का फल भोग रहे हैं । अथवा ये लोग निकम्मे हैं, आलसी हैं। इनसे काम-धाम होता नहीं है, इसलिए साधु बन गये हैं। ये लोग अभागे और भिखारी हैं। घर में इन्हें कोई पूछता नहीं था, ये आश्रयहीन तथा सभी पदार्थों से तंग थे, इसलिए साधु का वेष पहन लिया है ।" अनाड़ी लोगों की इन अंटसंट बातों को सुनकर नौसिखिये कच्चे साधक को तो दिमाग चकरा जाता है। वह मन में दीन-हीन, विषण्ण हो जाता है। परन्तु परिपक्व साधक इन अपमानों को समभावपूर्वक सहते हैं ।
मूल पाठ एते सद्दे अचायंता, गामेसु नयरेसु वा। तत्थ मंदा विसीयंति, संगामंमिव भीरुया ॥७॥
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