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उपसर्गपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन – प्रथम उद्देशक
जब तक विजयी पुरुष की तरह वह संयम का सेवन नहीं करता है । यहाँ संयम को रूक्ष इसलिए कहा गया है कि उसके होने पर कर्म नहीं चिपकते हैं ।
निष्कर्ष यह है कि रूक्ष संयम को प्राप्त करके भी उपसर्गों का सामना करने में अनभ्यस्त नौसिखिये साधक अपराक्रमी ही सिद्ध होते हैं, वे हतोत्साह होकर मैदान छोड़कर भाग खड़े होते हैं ।
उपसर्ग सहने में अनभ्यस्त साधक कैसे घबरा जाता है, इसे ही अगली गाथा में बताते हैं-
मूल पाठ
जया हेमंत मासंमि सीतं फुसइ सव्वंगं
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तत्थ मंदा विसीयंति रज्जहीणा व खत्तिया || ४ || संस्कृत छाया
यदा हेमंतमासे शीतं स्पृशति सर्वांगम्
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तत्र मन्दाः विषीदन्ति राज्यहीना इव क्षत्रियाः || ४ ||
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अन्वयार्थ
( जया) जन ( हेमंतमासंमि ) हेमन्तऋतु में ( सीतं ) भयंकर शीत ठण्ड ( सव्वंग) समस्त अंगों को ( फुसइ) स्पर्श करती है, (तत्थ ) तब ( मंदा) मन्द - विवेकमूढ़ या अल्पपराक्रमी साधक ( रज्जहीणा ) राज्यभ्रष्ट (खत्तिया व ) क्षत्रिय की तरह ( विसोयंति) विषाद (खेद) पाते हैं ।
भावार्थ
जब हेमंत ऋतु के महीनों में कड़कड़ाती ठण्ड सारे अंगों को स्पर्श करती, कंपा देती है, तब मन्द -- अल्पसत्त्व साधक राज्यभ्रष्ट क्षत्रिय की तरह विषाद का अनुभव करते हैं ।
व्याख्या
भयंकर शीतस्पर्श से मन्द साधक को विषाद
इस गाथा में शीत - उपसर्ग का सामना करने में कायर साधक की मनोदशा का वर्णन करते हुए कहा है- - 'जया हेमंतमासं मि खत्तिया ।' आशय यह है कि कायर साधक हेमन्तऋतु में पौप, माघ आदि महीनों में जब कि बर्फीली ठण्डी हवाएँ कलेजे को चीरने लगती हैं, तब उस असह्य शीत के स्पर्श से कई मन्द - अल्पपराक्रमी गुरुकर्मी साधक इस प्रकार का विषाद अनुभव करते हैं, जैसे राज्य से च्युत क्षत्रियशासक विषाद अनुभव करते हैं । जैसे राज्यभ्रष्ट शासक मन में खेद करता है कि लड़ाई भी लड़ी, इतने आदमी भी मारे गये और राज्य भी खोया, वैसे ही उपसर्ग सहने में कायर साधक भी कड़ाके की ठण्ड का उपसर्ग आने पर इस प्रकार सोचकर
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