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सूत्रकृतांग सूत्र खिन्न होता है कि "मैंने घरबार भी छोड़ा, सुख-सुविधाएँ भी छोड़ी, परिवार वालों को भी रुष्ट किया, फिर भी ऐसी असह्य सर्दी का सामना करना पड़ रहा है।" अब उष्ण परीषह के विषय में कहते हैं -
मल पाठ पुढे गिम्हाहितावेणे, विमणे सुपिवासिए । तत्थ मंदा विसीयंति, मच्छा अप्पोदए जहा ॥५॥
संस्कृत छाया स्पृष्टो ग्रीष्माभितापेन विमनाः सुपिपासितः । तत्र मन्दाः विषीदन्ति मत्स्या अल्पोदके यथा ॥५।।
अन्वयार्थ (गिम्हाहितावेणं) ग्रीष्मऋतु के अभिताप---गर्मी से (पुठे) स्पर्श पाया हुआ साधक (विमणे) उदास और (सुपिवासिए) प्यास से व्याकुल एवं दीन हो जाता है। (तत्थ) उस समय (मंदा) मन्द - अल्पशक्तिमान साधक (विसीयंति) इस प्रकार विषाद पाते हैं, (जहा) जैसे (अप्पोदए) थोड़े-से पानी में (मच्छा) मछलियाँ तड़पती हैं।
भावार्थ ज्येष्ठ-आषाढ़ महीनों में जब भयंकर गर्मी का परीषह नवदीक्षित साधक को स्पर्श करता है, तब गर्मी से पीड़ित और प्यास से व्याकुल साधक उदास हो जाता है। उस समय अल्पपराक्रमी विवेकमूढ़ साधक इस प्रकार तड़पते हैं, जैसे थोड़े-से पानी में मछलियाँ तड़पती हैं।
व्याख्या ग्रीष्मताप से पीड़ित साधक की मनोदशा
इस गाथा में ग्रीष्म के ताप से उपसर्गों एवं परीषहों को सहने में कायर, अनभ्यस्त नवदीक्षित साधक की मनोदशा का चित्रण किया है कि जब ज्येष्ठ एवं आषाढ़ मास में भयंकर गर्मी पड़ती है, लू चलती है, सनसनाती हुई गर्म हवाएँ शरीर को स्पर्श करती हैं, उस समय कच्चा नौसिखिया अल्पपराक्रमी साधक उदास, खिन्न एवं प्यास से व्याकुल हो जाता है । विवेकमूढ़ अल्पसत्त्व नवदीक्षित साधक एकदम तड़प उठते हैं । उनको किस प्रकार का विषाद होता है, इसे दृष्टान्त द्वारा समझाते हैं -- 'मच्छा अप्पोदए जहा।' जब किसी जलाशय में पानी सूखने लगता है, तब अत्यन्त अल्प पानी में मछलियाँ गर्मी से तप्त होकर तड़प उठती हैं, वहाँ से हटने में असमर्थ होकर वे वहीं मरणशील हो जाती हैं। इसी प्रकार परीषह का सामना करने में शक्तिहीन, अल्पसत्त्य नवदीक्षित साधक चारित्र ग्रहण करके भी पसीने से
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