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________________ ४०६ मूल पाठ एवं सेहेविअप्पुट्ठे, भिक्खायरिया अकोविए । सूरं मण्णति अप्पाणं, जाव लुहं न सेवए || ३ || संस्कृत छाया एवं शैक्षोऽप्यस्पृष्टो, भिक्षाचर्याsकोविदः । शूरं मन्यत आत्मानं यावद् रूक्षं न सेवते ॥ ३॥ , अन्वयार्थ सूत्रकृतांग सूत्र ( एवं ) इसी तरह ( भिक्खायरिया अकोविए) भिक्षाचरी में अनिपुण तथा ( अप्पुट्ठे ) परीषहों व उपसर्गों का स्पर्श नहीं पाया हुआ (सेहेवि) नवदीक्षित साधु भी (अप्पा) अपने आपको तब तक ( सूरं ) शूर ( मण्णति ) मानता है, (जाव ) जब तक वह (लहं) कर्म चिपकने के कारण अभावरूप संयम का ( न सेवए) सेवन नहीं करता है । Jain Education International भावार्थ जैसे कायर पुरुष जब तक शत्रुदल के वीरों से घायल नहीं किया जाता, तब तक अपने को वीर मानता है, वैसे ही भिक्षाचरी में अनिपुण तथा परीषहों एवं उपसर्गों का स्पर्श नहीं पाया हुआ ( इनसे अछूता ) नवदीक्षित साधक भी तभी तक अपने को वीर मानता है, जब तक वह संयम का सेवन - आचरण नहीं करता । व्याख्या नवदीक्षित साधु भी तभी तक अपने को वीर मानता है। इस गाथा में पूर्व गाथाद्वय में प्रस्तुत किये हुए दृष्टान्तों को नवदीक्षित एवं उपसर्गों का सामना करने में अनभ्यस्त साधक पर घटाते हैं - ' एवं सेहेवि लूहं न सेवए ।" ' एवं ' शब्द यहाँ पूर्वोक्त दृष्टान्तों को सूचित करने के लिए प्रयुक्त हुआ है । जैसे स्वयं को शुर मानने वाला वह पुरुष बड़े जोर-शोर से सिंहनाद करता हुआ संग्राम के मोर्चे पर चला जाता है, वहाँ वह युद्ध करते हुए वज्रसंकल्प प्रतियोद्धा या किसी वीरपुरुष को देखकर जैसे हतोत्साह या घायल होकर दीन हो जाता है, इसी तरह परीषहों एवं उपसर्गों से अपरिचित -- अछूता तथा भिक्षाचरी एवं अन्य साध्वाचार में नवदीक्षित होने के कारण अनिपुण साधक गर्जता है - "अरे ! संयमपालन करना क्या दुष्कर है ? वह तो मेरे लिए बाँये हाथ का खेल है ।" वह शिशुपाल की तरह तभी तक स्वयं को उपसर्गों का सामना करने में वीर मानता है, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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