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उपसर्गपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन---प्रथम उद्देशक
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प्रथम उद्देशक : प्रतिकूल उपसर्गाधिकार यह पहले कहा जा चुका है कि प्रथम उद्देशक में प्रतिकूल उपसर्ग का अर्थाधिकार है । अत: इस उद्देशक को प्रथम गाथा इस प्रकार है
मूल पाठ सूरं मण्णइ अप्पाणं, जाव जेयं न पस्सती । जुझतं दढधम्माणं, सिसुपालो व महारहं ॥ ॥
संस्कृत छाया शूरं मन्यत आत्मानं यावज्जेतारं न पश्यति । युध्यन्तं दृढधर्माणं, शिशुपाल इव महारथम् ।।१।।
__ अन्वयार्थ (जाव) जब तक (जेयं) विजेता पुरुष को (न पस्सती) नहीं देखता है, तब तक कायर (अप्पाणं) अपने आपको (सूरं) शूरवीर (मण्णइ) मानता है। (जुज्झतं) युद्ध करते हुए (महारह) महारथी (दढधम्माणं) दृढ़धर्मा-अपने प्रण पर दृढ़ कृष्ण को देख कर (सिसुपालो व) जैसे शिशुपाल क्षोभ को प्राप्त हुआ था।
भावार्थ कायर पुरुष तब तक ही अपने आपको संग्रामवीर मानता है, जब तक अपने सामने विजयी वीर को नहीं देख लेता। जैसे शिशुपाल स्वयं को शूरवीर मान रहा था, लेकिन जब उसने युद्ध करते हुए महारथी एवं दृढ़धर्मा कृष्ण को देखा तो उसके छक्के छूट गये थे।
व्याख्या
कायर तभी तक अपने को शूरवीर मानता है..... इस गाथा में अपनी शेखी बघारने और झूठी डींग हाँकने वाले अल्पसत्त्व साधक को संयमपालन के समय उपस्थित होने वाले अनुकूल-प्रतिकूल उपसर्गों को सहने में अपनी शक्ति को तौलने और अगर मनोबल कम हो, तो उसे अच्छी तरह भरने की दृष्टि से दृष्टान्त देकर प्रेरित किया गया है। क्योंकि दृष्टान्त के माध्यम से सर्वसाधारण व्यक्ति शीघ्र वस्तुतत्त्व को समझ सकता है। इसी हेतु से कहा है'सूरं मण्णइ .. ... महारहं ।' तात्पर्य यह है कि रणक्षेत्र में कायर पुरुष तभी तक बिना बरसने वाले बादलों की तरह गर्जता है, और अपनी बड़ी लम्बी-चौड़ी डींगें हाँकता है.---"मेरे बाप-दादा ऐसे थे, मैं ऐसा हूँ, मैंने अमुक को हरा दिया, अमुक को छठी का दूध याद दिला दिया, शत्रु की सेना में मेरे सरीखा कोई बहादुर नहीं है। मैं अकेला ही संपूर्ण शत्रु-समूह को चारों खाने चित्त कर दूंगा," जब तक कि शस्त्र ऊँचा उठाये हुए युद्ध के लिए सामने उपस्थित विजेता प्रतियोद्धा को नहीं देख लेता। कहा भी है -
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