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सूत्रकृतांग सूत्र
जो कर्म उदय को प्राप्त नहीं है, उसका उदय होना, उपक्रम कहलाता है। जिस द्रव्य के उपयोग करने से अथवा जिस वस्तु के द्वारा असातावेदनीय आदि अशुभ कर्म का उदय (उपक्रम) होता है और जिसके उदय होने से अल्पपराक्रमी साधक के संयम का विनाश- विघात हो जाता है, या संयम में विघ्न पैदा हो जाता है, उस द्रव्य के द्वारा उत्पन्न संयम-विघातक उपसर्ग को औपक्रमिक उपसर्ग कहते हैं।
___ इस जगत् में मोक्षप्राप्ति के लिए प्रवृत्त मुनियों का संयम ही मोक्ष का प्रधान कारण है। अत: इस संयम में विघ्न पैदा करने का जो कारण है, उस औपक्रमिक उपसर्ग का ही यहाँ वर्णन है, औधिक उपसर्ग का नहीं।'
__ वह औपक्रमिक उपसर्ग द्रव्य रूप से चार प्रकार का है--देवकृत, मनुष्यकृत, तिर्यञ्चकृत एवं आत्मसंवेदनकृत ।
देवकृत आदि उपसर्गों के प्रत्येक के चार-चार प्रकार होते हैं । देवकृत (दिव्य) उपसर्ग हास्य से, द्वेष से, परीक्षा करने के लिए तथा नाना कारणों से होता है। मनुष्यकृत उपसर्ग भी हास्य से, द्वेष से, परीक्षार्थ तथा कुशील-सेवनार्थ होता है। तिर्यञ्चकृत उपसर्ग भी चार प्रकार के होते हैं--भय के कारण, द्वेष के कारण, आहार करने के लिए तथा अपने बच्चे आदि की रक्षा के लिए। आत्मसंवेदनरूप उपसर्ग भी चार प्रकार के होते हैं-नेत्र आदि अंगों को रगड़ने (घर्षण) से, अंगुलि आदि अंगों के कट जाने या सट जाने से, स्तम्भन--रक्त आदि का संचार रुक जाने से तथा ऊपर से गिर जाने से। अथवा वात, पित्त, कफ और इनके समूह से उत्पन्न चतुर्विध उपसर्ग भी आत्मसंवेदनरूप कहलाते हैं ।
पूर्वोक्त देवकृत आदि चारों प्रकार के उपसर्ग अनुकल और प्रतिकूल के भेद से ८ प्रकार के हैं। देवकृत आदि चारों उपसर्गों के साथ प्रत्येक के पूर्वोक्त चार-चार प्रकारों को जोड़ने से या परस्पर मिलाने से उपसर्गों के १६ भेद होते हैं। ये उपसर्ग किस-किस तरीके से प्राप्त होते हैं, और प्राप्त हुए इन उपसर्गों को सहन करने में क्या-क्या पीड़ा होती है ? इस अध्ययन में उन्हीं का वर्णन किया जायगा । यही इस अध्ययन का अर्थाधिकार है।
१. देखिए नियुक्तिकार का कथन
उवक्कमिओ संजमविग्धकरे, तत्थ उवक्कमे पगयं । दवे चउविहो देव-मणुय-तिरियायसंवेत्तो ॥४७॥
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