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उपसर्गपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन --- प्रथम उद्देशक
होने वाले हेत्वाभासों से वस्तुस्वरूप को विपरीतरूप में ग्रहण करने से जिनका चित्त मोहित एवं शीलभ्रष्ट हो जाता है, उन्हें स्वसिद्धान्त प्रसिद्ध युक्तिसंगत हेतुओं द्वारा यथार्थ बोध देकर उक्त उपसर्ग में स्थिर रहने का उपदेश दिया गया है।
उपसर्ग : स्वरूप, अर्थ, प्रकार और विश्लेषण
उपसर्ग का स्वरूप बताते हुए नियुक्तिकार कहते हैं'आगंतुगो य पीलागरो य जो सो उवसग्गो ।'
जो किसी देवता, मनुष्य या तिर्यञ्च आदि दूसरे पदार्थों से आता है तथा जो देह को अथवा संयम को पीड़ित करता है, वह उपसर्ग कहलाता है । उपताप, शरीरपीडोत्पादक, इत्यादि शब्द उपसर्ग के पर्यायवाची हैं होते हैं, या मनुष्यकृत होते हैं, अथवा तिर्यचकृत होते हैं होते हैं ।
। उपसर्ग या तो देवकृत अथवा आत्मसंवेदनरूप
उपसर्ग को विभिन्न दृष्टियों से समझने के लिए उसके अर्थ निरूपक ६ निक्षेप किये जाते हैं -- नाम-उपसर्ग, स्थापना - उपसर्ग, द्रव्य-उपसर्ग, क्षेत्र - उपसर्ग, काल- उपसर्ग और भाव-उपसर्ग | किसी का गुणशून्य उपसर्ग नाम रख देना नाम-उपसर्ग है । उपसर्ग सहन करने वाले की या उपसर्ग को सहन करते समय की अवस्था ( पोज) चित्रित करना या उसका कोई प्रतीक रखना स्थापना - उपसर्ग है । द्रव्य-उपसर्ग उपसर्ग करने वाले या यों कहें कि उपसर्ग करने के साधनों के रूप में दो प्रकार का होता है - सचेतन द्रव्य का और अचेतन द्रव्य का । चेतन प्राणी तिर्यञ्च और मनुष्य अपने अंगों का घात करके जो उपसर्ग ( देहपीड़ा ) उत्पन्न करते हैं, वह सचित्त द्रव्यकृत उपसर्ग है तथा काष्ठ आदि अचित्त द्रव्यों के द्वारा किया हुआ अपने अंगों का घात आदि अचित्तद्रव्यकृत उपसर्ग है । जिस क्षेत्र में क्रूर जीव तथा चोर आदि के द्वारा शरीर पीड़ा आदि होती है या कोई वस्तु किसी क्षेत्र में दुःख उत्पन्न करती है, उसे क्षेत्रोपसर्ग कहते हैं । ऐसे क्षेत्र लाढ़ आदि अनार्य देश हैं । क्षेत्रोपसर्ग 'घरूप' भी होता है । इसके अनुसार जिस क्षेत्र में समूह रूप से बहुत-से भयस्थान या खतरे होते हैं, वह क्षेत्रोपसर्ग 'बह्वोघमय' होता है । जिस काल में एकान्तरूप से दुःख ही होता है, वह दुःषम आदि काल कालोपसर्ग है । ग्रीष्म, शीत आदि भी अपने-अपने समय में दुःख उत्पन्न करते हैं, उसे भी कालोपसर्ग कहा जा सकता है । ज्ञानावरणीय, असातावेदनीय आदि कर्मों का उदय होना, भावोपसर्ग है ।
नाम-स्थापना को छोड़कर पूर्वोक्त सभी उपसर्ग औधिक और औपक्रमिक के भेद से दो प्रकार के होते हैं । अशुभ कर्मप्रकृति से उत्पन्न भाव - उपसर्ग को औधिक उपसर्ग कहते हैं तथा डंडा, चाबुक, शस्त्र आदि के द्वारा दुःख की उत्पत्ति करने वाला उपसर्ग औपक्रमिक उपसर्ग कहलाता है ।
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