SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 445
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीय अध्ययन : प्रथम उद्देशक उपसर्गपरिज्ञा इससे पूर्व पहले और दूसरे अध्ययन की व्याख्या की जा चुकी है। पहले अध्ययन में स्व-समय-परसमयवक्तव्यता के सन्दर्भ में यह बताया गया था कि कर्मबन्धन और उनके कारणों को स्वसिद्धान्त की दृष्टि से ज्ञपरिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यानपरिज्ञा से तोड़े। तदनन्तर द्वितीय अध्ययन में उसी के सन्दर्भ में कर्मविदारण (कर्मबन्धनों को तोड़ने) के लिए साधना के विभिन्न पहलुओं को लेकर उपदेश (भगवान ऋषभदेव की भाषा में) दिया गया था। अब तृतीय अध्ययन में यह बताया गया है कि कर्म-विदारण करते समय प्रसंगवश 'सम्बुद्धस्सुवसग्गा०' इस पूर्व गाथानुसार सम्बुद्ध (सम्यक् उत्थान से उत्थित) साधक के सामने कई अनुकूल या प्रतिकूल उपसर्ग आने सम्भव हैं । अत: 'बोधसम्पन्न एवं संयमपरायण मुनि उपसर्ग आने पर समभावपूर्वक सहन करे;' यह बताया है। इस अध्ययन का संक्षिप्त परिचय 'उपसर्गपरिज्ञा' नामक इस अध्ययन में श्रमणधर्म का पालन करते समय आने वाले कई अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्गों का निरूपण है। यहाँ अर्थाधिकार दो प्रकार का है--अध्ययनार्थाधिकार और उद्देशार्थाधिकार । अध्ययन अर्थाधिकार तो 'सम्बुद्धस्सुवसग्गा०' इत्यादि गाथा के द्वारा नियुक्तिकार ने पहले ही बता दिया है। उद्देशार्थाधिकार इस प्रकार है--इस अध्ययन में चार उद्देशक हैं। इस सम्बन्ध में नियुक्ति की गाथाएँ इस प्रकार हैं ---- पढमंमि य पडिलोमा हुंती, अणुलोमगा य वितीयंमि । तइए अज्झत्तविसीअणं च परवादिवयणं च ॥४६॥ हेउसरिसेहिं अहेउएहि समयपडिएहिं णिउणेहि । सीलखलितपण्णवणा, कया चउत्थंमि उद्दसे ॥५०॥ अर्थात्-प्रथम उद्देशक में प्रतिलोम–प्रतिकूल उपसर्गों का वर्णन है, द्वितीय उद्देशक में अनुलोम--स्वजनकृत अनुकूल उपसर्गों का निरूपण है, तदनन्तर तृतीय उद्देशक में आत्मा में विषाद पैदा करने वाले अन्यतीथिकों के तीक्ष्णवचनरूप उपसर्गों का विवेचन है। इसके पश्चात् चतुर्थ उद्देशक में अन्यतीथिकों के हेतुसदृश प्रतीत ४०० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy