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भावार्थ
सब प्राणी अपने-अपने कर्मानुसार विभिन्न अवस्थाओं से युक्त हैं । तथा सभी किसी न किसी अव्यक्त दुःख से दुःखित हैं । वे अनेक दोषों से दूषित ( शठ, प्राणी जन्म-जरा-मरण से पीड़ित एवं भयाकुल होकर बार-बार संसार चक्र में परिभ्रमण करते रहते हैं ।
व्याख्या
सूत्रकृतांग सूत्र
जीव का स्वकर्मसूत्र ग्रथित संसारभ्रमण
इस गाथा में पूर्वोक्त बात को सिद्ध करने के लिए शास्त्रकार कर्मसिद्धान्त प्रस्तुत करते हैं- 'सव्वे सयकम्म अभिदुता । आशय यह है कि इस संसाररूपी गर्त में पड़े हुए समस्त प्राणिगण संसार में पर्यटन करते हुए स्वकृत ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के प्रभाव से सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त, अपर्याप्त, सम्मूर्छिम, गर्भज तथा एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक नाना अवस्थाओं को प्राप्त करते हैं । इन विभिन्न अवस्थाओं में ये प्राणी शिरोवेदना आदि अनेक शारीरिक तथा अपमान, आपत्ति आदि मानसिक अलक्षित दुःखों से दुःखी होते हैं । यहाँ अव्यक्त दुःख उपलक्षण है, असातावेदनीयस्वरूप स्पष्ट प्रतीत होने वाले दुःखों से भी दुःखी होते हैं । वे अरहटयंत्र की तरह बार-बार उन्हीं योनियों में आते-जाते रहते हैं । यहाँ ' शठ' इसलिए कहा है कि वे शठ (दुष्ट) की तरह अनेक दुष्टकर्म करते हैं । किन्तु फल भोगते समय अत्यन्त भयाकुल होते हैं । बार-बार जन्म- जरा - मृत्यु से पीड़ित रहते हैं । इस प्रकार बार-बार संसारचक्र में परिभ्रमण करते रहते हैं ।
मूल पाठ
इणमेव खणं विजाणिया, णो सुलभं बोहि च आहियं । एवं सहिएऽहिपासए आह जिणो इणमेव सेसगा
॥१६॥
संस्कृत छाया
इममेव क्षणं विज्ञाय, नो सुलभं बोधि च आख्याताम् । एवं सहितोऽधिपश्येद् आह जिन इदमेव शेषकाः ।।१६।।
अन्वयार्थ
( इणमेव ) यही (खणं) क्षण-अवसर है, ( बोहि च ) बोधि- ज्ञान भी ( णो सुलभं) सुलभ नहीं है, ( आहियं) ऐसा कहा है, (विजाणिया ) इस बात को जानकर ( सहिए ) ज्ञानादि सम्पन्न अथवा अपने हित को समझने वाला मुनि ( एवं ) इस प्रकार ( अहिपास ) विचार करे ( जिणो ) तीर्थंकर ऋषभदेव ने कहा है, (सेगा ) और शेष तीर्थंकरों ने भी ( इणमेव ) यही कहा है ।
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