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वैतालीय : द्वितीय अध्ययन-तृतीय उद्देशक
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आशय यह है कि पूर्वजन्म में उपाजित असातावेदनीयकर्म के उदय से जीव पर दुःख (रोग', बुढ़ापे आदि का) आ पड़ता है, तो वह उसे अकेला ही भोगता है। इसीलिए किसी विचारक ने कहा है :---
___सयणस्स वि मज्झगओ रोगाभिहतो किलिस्सइ इहेगो ।
सयणो विय से रोग न विरंचइ नेव नासेइ ॥ अर्थात--अपने स्वजनवर्ग के बीच में रहा हआ भी व्यक्ति जब रोग से पीड़ित होता है, तब अकेला ही दुःख भोगता है । स्वजनवर्ग उसके रोग को न तो घटा सकते हैं और न ही नष्ट कर सकते हैं । अथवा उपक्रम के कारणों से जब प्राणी की आयु नष्ट हो जाती है, अथवा आयु की अवधि पूर्ण होने पर जब मृत्युकाल उपस्थित होता है, तब क्या कोई स्वजन उसकी मृत्यु को रोक सकता है या मृत्यु होने पर उसके साथ परलोक में जा सकता है या वहाँ से इस लोक में पुनः आ सकता है ? कदापि नहीं । प्राणी अकेला ही परलोक में जाता है और वहाँ से इस लोक में भी अकेला ही आता है। उस समय उसका कोई भी साथी नहीं होता। इसलिए विवेकी पुरुष, जो संसार के वस्तु स्वरूप को जानता है, वह धन आदि को अपना रक्षक या शरणरूप नहीं मानता । कहा भी है :
एकस्य जन्ममरणे गतयश्च शुभाशुभाः भवावर्ते ।
तस्मादाकालिकहितमेकेनैवात्मनः कार्यम् ॥ अर्थात्-इस जगत् में जीव अकेला ही जन्म लेता है, अकेला ही मरता है । तथा इस संसार चक्र में वह अकेला ही आता है और अकेला ही जाता है। इसलिए मरणपर्यन्त जीव को अकेले ही अपना हित सम्पादन करना चाहिए।
मूल पाठ सव्वे सयकम्मकप्पिया, अवियत्तण दुहेण पाणिणो । हिंडंति भयाउला सढा, जाइजरामरणेहिऽभिदुता ॥१८॥
संस्कृत छाया सर्वे स्वकर्मकल्पिता अव्यक्त न दुःखेन प्राणिनः हिडन्ति भयाकुलाः शठाः, जाति-जरा-मरणैरभिद्र ताः ।।१८॥
अन्वयार्थ (सम्वे पाणिणो) समस्त प्राणिगण (सयकम्मकप्पिया) अपने-अपने कर्मों के कारण नाना अवस्थाओं से युक्त हैं और (अवियत्तण दुहेण) सब अव्यक्त-अलक्षित दुःखों से दुःखी हैं। (जाइ-जरा-मरणेहि) जन्म जरा और मृत्यु से (अभिदुता) पीड़ित और (भयाउला) भय से आकुल (सढा) शठ-दुष्ट जीव (हिंडंति) बार-बार संसार चक्र में परिभ्रमण करते रहते हैं।
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