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________________ ३६२ सूत्रकृतांग सूत्र अर्थात्-माता-पिता हजारों हुए और पुत्र-कलत्र (स्त्री) भी सैकड़ों हुए। ये तो प्रत्येक जन्म में होते हैं । वस्तुतः कौन माता है, कौन पिता है। ___ इसी दृष्टि से शास्त्रकार कहते हैं-नरक में गिरते हुए प्राणी की ये पिता आदि किसी प्रकार भी रक्षा नहीं कर सकते । जो पुरुष राग आदि से युक्त है, उसके लिए कहीं भी शरण नहीं है। मूल पाठ अब्भागमितंमि वा दुहे, अहवा उक्कमिते भवंतिए । एगस्स गई य आगई, विदुमंता सरणं ण मन्नई ॥१७॥ संस्कृत छाया अभ्यागते वा दुःखेऽथवोत्क्रान्ते भवान्तिके । एकस्य गतिश्चागतिः विद्वान् शरणं न मन्यते ॥१७॥ अन्वयार्थ (अब्भागमितंमि दुहे) दुःख आने पर (अहवा) अथवा (उक्कमिते) उपक्रम के कारणों से आयु नष्ट होने पर (भवंतिए) अथवा देहान्त (मृत्यु) होने पर (एगस्स) अकेले का ही (गई य आगई) जाना या आना होता है। (विदुमंता) अतः विद्वान् पुरुष (सरणं) धन आदि को अपना शरण (ण मन्नई) नहीं मानता है । भावार्थ जब प्राणी के ऊपर किसी प्रकार का दुःख आ पड़ता है, तब वह उसे अकेला ही भोगता है तथा उपक्रम के कारणों से आयु नष्ट होने पर या मृत्यु उपस्थित होने पर वह अकेला ही परलोक में जाता है तथा वहाँ से मरकर पुन: आता है। इसलिए विद्वान् पुरुष किसी को अपना शरण नहीं मानते। व्याख्या दुःखभोग तथा परलोक-गमनागमन अकेले का ही ! पूर्वगाथा में शास्त्रकार ने स्पष्टतः यह सिद्ध कर दिया कि कोई भी पदार्थ किसी की रक्षा नहीं कर सकता एवं शरण नहीं दे सकता । इस गाथा में उसी के सन्दर्भ में यह बताया है कि कोई किसी का शरणदाता इसलिए नहीं है कि जीव अकेला (स्वयं) ही कर्म करता है, स्वयं ही उसका फल भोगता है, परलोक में भी अकेला ही जाता है, वहाँ से आयु पूर्ण कर पुनः अकेला ही आता है । तब कौन किसी को शरण दे सकता है ? इसी बात को शास्त्रकार कहते हैं----'अब्भागमिमंमि "सरणं ण मन्नई। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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