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________________ वैतालीय : द्वितीय अध्ययन---तृतीय उद्देशक अन्वयार्थ (बाले) अज्ञानी जीव (वित्त) धन (य) और (पसवो) पशुगण (नाइयो) तथा ज्ञाति (तं) इन्हें (सरणति) अपना शरण (मन्नइ) मानता है। (एते) ये (मम) मेरे हैं, (तेसु वो अहं) और मैं इनका हूँ। (नो ताणं) वस्तुतः ये सब त्राण-रक्षक और (सरणं) शरण (न विज्जई) नहीं है। भावार्थ __ अज्ञानी जीव धन, पशु और ज्ञाति जनों को अपना शरणभूत समझता है। ये मेरे हैं, मैं इनका स्वामी हूँ, ऐसा समझता है। किन्तु वास्तव में ये उसके लिए न त्राणरूप हैं और न शरणरूप हैं। व्याख्या धन आदि पदार्थ शरणभूत नहीं इस गाथा में अज्ञानी जीव की सांसारिक पदार्थों के प्रति ममत्ववृत्ति का वर्णन करके शास्त्रकार ने सुविहित साधक के लिए ममत्वत्याग ध्वनित कर दिया है। वित्त पसको य"..."सरणं ति मन्नइ-धन, धान्य, सोना, चाँदी, रत्न आदि को वित्त कहते हैं। हाथी, घोड़ा, गाय, भैंस आदि को पशु कहते हैं। माता, पिता, स्त्री, पुत्र, भाई, बहन आदि स्वजन वर्ग को ज्ञातिजन कहते हैं । अज्ञानी जीव मोहविकल होकर धन आदि सजीव-निर्जीव पदार्थों को अपने शरणभूत मानता है। वह समझता है कि ये धन, पशु और ज्ञातिजन मेरे परिभोग में सहायक, उपयोगी, रक्षणदाता, और शरणदाता होंगे मैं इनके उपार्जन और पालन द्वारा सब उपद्रवों को नष्ट कर दूंगा। यही शास्त्रकार कहते हैं—'एते मम तेसु वी अहं ।' इसका निराकरण करते हुए यथार्थ वस्तुस्वरूप बताते हैं—'नो ताणं सरणं न विज्जई ।' आशय यह है कि ये सभी पदार्थ न तो उसकी रक्षा कर सकते हैं और न शरण दे सकते हैं। क्योंकि जिस शरीर के लिए धनोपार्जन की इच्छा की जाती है, वह शरीर ही विनाशी है। विद्वानों ने कहा है---- रिद्धी सहावतरला रोगजराभंगुरं हयसरीरं । दोण्हंपि गमणसीलाणं किच्चिरं होज्ज सम्बन्धो ? अर्थात्----ऋद्धि स्वभाव से ही चंचल है, यह निकृष्ट शरीर रोग और बूढ़ापे से नश्वर है। इन दोनों गमनशील-नाशवान पदार्थों का सम्बन्ध कब तक रह सकता है ? मातापितृ सहस्राणि पुत्रदारशतानि च । प्रतिजन्मनि वर्तन्ते, कस्य मातापिताऽपि वा ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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