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वैतालीय : द्वितीय अध्ययन-तृतीय उद्देशक
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भावार्थ ज्ञानादि सम्पन्न अथवा स्वहितचिन्तक मुनि यह सोचे कि मोक्ष-साधन का यही उत्तम अवसर है । और सर्वज्ञों ने कहा है कि बोध प्राप्त करना सुलभ नहीं है। इस बात को विशेषरूप से साधक जान-समझ ले । आदि तीर्थंकर ऋषभदेव ने अपने पुत्रों को यह उपदेश दिया था और शेष तीर्थकरों ने भी यही कहा है।
व्याख्या
मोक्ष-साधना एवं बोधप्राप्ति का दुर्लभ अवसर मत खोओ इस गाथा में मोक्ष साधना बोधि प्राप्ति के दुर्लभ अवसर की चर्चा करके शास्त्रकार ने अव्यक्त रूप से साधक को अवसर न खोने का संकेत कर दिया है.---'इणमेव खणं विजाणिया''इणमेव सेसगा।'
इणमेव खणं- यह क्षण (इदं क्षणं) में 'इणं' शब्द प्रत्यक्ष और समीप का वाचक है । क्षण शब्द यहाँ अवसर अर्थ में है। इसलिए साधक द्रव्य, क्षेत्र काल
और भाव को मोक्ष साधना का यही और यहीं, इसी क्षेत्र और काल को उचित व श्रेष्ठ अवसर समझे। इन चारों में जंगम होना, पंचेन्द्रिय होना और उत्तम कुलोत्पत्ति तथा मनुष्यता प्राप्त होना यह द्रव्य-अवसर है, साढ़े पच्चीस जनपद रूप आर्यदेश प्राप्त होना, क्षेत्र-अवसर है । एवं अवसर्पिणी कालचक्र का चौथा, पाँचवाँ आरा आदि धर्मप्राप्ति के योग्य काल-अवसर है तथा उसमें श्रद्धान तथा चारित्रावरणीय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न विरति स्वीकार करने में उत्साहरूपभाव अनु. कलता भाव-अवसर है। शास्त्रकथन से ऐसे अवसर को तथा सम्यग्दर्शन की प्राप्ति को दुर्लभ जानकर तदनुरूप (यानी प्राप्त श्रेष्ठ अवसर तथा बोधि के अनुरूप) उचित कार्य सम्पादन करना चाहिए। अगर ऐसा अवसर प्राप्त होने पर भी साधक धर्माचरण नहीं करेगा तो बोधि प्राप्त करना सुलभ नहीं होगा । कहा भी है----
लद्धल्लियं च बोहि अकरेंतो अणागयं च पत्थेतो।
अन्नं दाई बोहि लब्भिसि कयरेण मोल्लेणं ? अर्थात ----जो पुरुष प्राप्त बोधि का सदुपयोग नहीं करता, अर्थात उसके अनुसार अनुष्ठान नहीं करता और भविष्यत्कालीन बोधि की अभिलाषा रखता है, अर्थात् यह चाहता है कि भविष्य में मुझे पुनः बोधि प्राप्त हो, वह दूसरों को बोधि देकर क्या मूल्य चुकाकर पुन: बोधिलाभ करेगा?
अतः ज्ञानादिसम्पन्न साधक को दीर्घदृष्टि से यह सोचना चाहिए कि एक बार बोधिलाभ का अवसर खो दिया तो फिर उत्कृष्ट अर्धपुद्गल परावर्तन काल तक फिर बोधि (सम्यक्त्व) प्राप्त करना दुष्कर होगा। अत: मुनि सदैव बोधि-दुर्लभता का ध्यान रखे ।
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