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वैतालीय : द्वितीय अध्ययन - तृतीय उद्देशक
भावार्थ
भगवान् के द्वारा प्ररूपित अनुशासन - आगम को सुनकर उसमें कहे गए सत्य - संयम में पुरुषार्थ करना चाहिए । भिक्षाजीवी साधु को सर्वत्र मल्स रहित रहना चाहिए और शुद्ध भिक्षा लानी चाहिए ।
व्याख्या
भगवदनुशासन और भिक्षु का कर्तव्य इस गाथा में तीन बातें साधुजीवन की चर्या से सम्बन्धित बताई हैं— (क) सर्वज्ञोक्त अनुशासन का श्रवण ( २ ) तदनुसार सत्य में पुरुषार्थ और ( ३ ) समभावपूर्वक विशुद्ध भिक्षाचर्या ।
सचमुच साधु को अपनी दिनचर्या उज्ज्वल रखने के लिए उक्त तीनों बातों पर ध्यान देना आवश्यक है ।
ज्ञान, वैराग्य, धर्म, यश, श्री, समग्र ऐश्वर्य एवं मोक्ष इन विभूतियों से सम्पन्न वीतराग भगवान् सर्वज्ञ सर्वदर्शी कहलाते हैं । उनके द्वारा उक्त अनुशासन यानी उनकी आज्ञा को अपने गुरु या आचार्य से श्रवण करना मिक्षु की दिनचर्या का प्रधान अंग होना चाहिए । तत्पश्चात् उक्त अनुशासन के अनुसार जो सत्य - सिद्धान्त है, उसमें तथा संयम प्राप्ति के लिए पुरुषार्थ करना चाहिए । वह पुरुषार्थ सभी पदार्थों के प्रति मत्सररहित एवं क्षेत्र, गृह, उपधि तथा शरीर आदि के प्रति ममता-तृष्णारहित, रागद्वेषरहित होकर करे । भिक्षाचर्या भी ४२ दोषों से रहित करनी चाहिए |
मूल पाठ
सव्वं नच्चा अहिट्ठए, धम्मट्ठी उवहाणवीरिए । गुत्ते जुत्त े सयाजए, आयपरे परमायतठिते
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संस्कृत छाया
सर्वं ज्ञात्वाऽधितिष्ठेत् धर्मार्थ्य पधान वीर्यः I गुप्तो युक्तः सदा यतेतात्मपरयोः परमायतस्थितः ।। १५ ।।
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।।१५।।
अन्वयार्थ
( सव्वं ) समस्त पदार्थों को ( नच्चा) जानकर साधु (अहिट्ठए) सर्वज्ञोक्त संवर का अधिष्ठान - आधार ले । ( धम्मट्ठी ) धर्म का प्रयोजन रखे । ( उवहाणवीरिए) तप में अपनी शक्ति लगाए, ( गुत्ते जुत्ते ) मन-वचन काया की गुप्तिरक्षा से युक्त होकर रहे (सया) सदा (आयपरे ) स्वपर कल्याण के विषय में अथवा आत्मपरक होकर (जए) प्रयत्न करे । ( परमायतट्ठिए) और परमायत - मोक्ष के लक्ष्य में स्थित हो ।
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