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________________ वैतालीय : द्वितीय अध्ययन ---तृतीय उद्देशक ३८७ हो, उस प्रागी को दुःखी कहते हैं। दुःखी प्राणी दुःख में भान भूल जाता है । क्या करना और क्या न करना, इस बात का उसे विवेक नहीं रहता। वह किंकर्तव्यविमूढ़ होकर मनमानी करता रहता है। जो हितैषी उसे दुःख (आर्तध्यान) के समय उपदेश देता है, उसके उपदेश को भी वह मूढ ठुकरा देता है। सर्वज्ञ के उपदेश पर भी उसे विश्वास नहीं होता। और वह दुःख के आवेश में लगातार ऊटपटाँग कुकृत्य करके बार-बार मोहकर्मबन्धन कर लेता है। दूसरी बात यह है कि जो मानसिक दुःखी होता है, वह अपने को दूसरों की तुलना में नीची कोटि का मानकर जराजरा-सी बात में अपना अपमान समझ लेता है। वह अपने आपको उच्च स्थिति में एवं प्रतिष्ठित कहलाने के लिए पूजा-प्रतिष्ठा प्राप्त करने के कई हथकंडे अपनाता है । जरा-सी प्रतिष्ठा प्राप्त होते ही, समाज या राष्ट्र में एक दफा जरा-सा नाम चमकते ही वह दूसरों को अपने से तुच्छ, हीन, नीच समझने लगता है। इस प्रकार उच्चनीच, छोटे-बड़े, अच्छे-बुरे आदि विषमता की भावना का शिकार होकर वह विवेकमूढ़ पुनः-पुन: मोहकर्मवश दुष्कर्म करता है, जिसके कारण दुःखी होता रहता है। इसी दृष्टि से शास्त्रकार इस गाथा के द्वितीय चरण में सुविहित साधुओं के लिए प्रेरणा देते हैं-'निविदेज्ज सिलोगपूयणं ।' अपनी स्तुति-पूजा से दूर रहो। जहाँ एक बार भी पूजा, प्रतिष्ठा और यशकीति की चाट लग गयी कि विवेकमूढ़ होकर तुम भी पुनः जरा-जरा-सी बात में अपमान, तिरस्कार समझकर मानसिक दुःखी बन जाओगे। इसलिए विवेकी बनकर सबके प्रति आत्मवत् भावना रखो। अपने लिए उच्चता की भावना होगी, तो दूसरों को नीच और तुच्छ समझने की गलत वृत्ति पैदा होगी। इसीलिए नीचे की पंक्ति में कहा – 'एवं सहिते"आयतुले पाणेहि संजए।' ज्ञान-दर्शन-चारित्र से सम्पन्न (भरा-पूरा) साधु सबको आत्मतुल्य समझता है, वह किसी की निन्दा, अपकीति, अपमान या बेइज्जती नहीं करता, और न ही अपने लिए पूजा-प्रतिष्ठा की इच्छा करता है। स्वपर-कल्याण में प्रवृत्त साधु सुख चाहने वाले दूसरे प्राणियों को अपने ही समान सुख को प्रिय तथा दुःख को अप्रिय मानने वाले समझे। मूल पाठ अगारं पि य आवसे नरे, अणुपुव्वं पाणेहिं संजए। समता सव्वत्थ सुव्वते, देवाणं गच्छे स लोगयं ॥१३॥ संस्कृत छाया अगारमप्यावसन्नर आनुपूर्व्या प्राणेषु संयतः । समतां सर्वत्र सुव्रतो देवानां गच्छेत् स लोकम् ।।१३।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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