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सूत्रकृतांग सूत्र
इतना होने पर भी यदि तुम सर्वज्ञोक्त आगम को स्वीकार नहीं करोगे तो अन्धपुरुष के समान कर्त्तव्य - अकर्त्तव्य के विवेक से रहित हो जाओगे ।
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अथवा इस गाथा का अर्थ यह भी सम्भव है ---हे अन्यदर्शन वाले पुरुष ! चाहे तुम अदक्ष (अनिपुण ) हो या दक्ष ( निपुण) हो, जैसे भी हो, तुम्हें अचक्षुदर्शन - केवलज्ञानी सर्वज्ञपुरुष द्वारा जो हित की प्राप्ति होती है, उसमें श्रद्धा करनी चाहिए ।
तात्पर्यार्थ यह है कि अपने आग्रह को छोड़कर सर्वज्ञोक्त मार्ग पर श्रद्धा करो, इसी में तुम्हारा कल्याण निहित है ।
मूल पाठ
दुक्खी मोहे पुणो पुणो, निव्विदेज्ज सिलोगपूयणं ।
एवं सहितेऽहिपासए, आयतुले पाणेहि संजए ॥१२॥
संस्कृत छाया
दुःखी मोहं पुनः पुनर्निर्विन्देत श्लोकपूजनम्
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एवं सहितोऽधिपश्येद् आत्मतुल्यान् प्राणान् संयतः || १२ || अन्वयार्थ
( दुक्खी) दुःखी जीव (पुणो पुणो ) बार-बार ( मोहे) मोह -- विवेकमूढ़ता को प्राप्त करता है । ( सिलोगपूयणं) अतः साधक अपनी स्तुति और पूजा को (निव्विदेज्ज) त्याग दे । ( एवं ) इस प्रकार ( सहिते) ज्ञानादिसम्पन्न ( संजए ) संयमी साधु ( पाणेहि ) प्राणियों को (आयतुलं) आत्मतुल्य - अपने समान ( अहिपास ए ) देखे |
भावार्थ
दुःखी जीव बार-बार मोह (विवेक) मूढ़ होते हैं । अतः साधक स्तुति से विरक्त रहे । इस प्रकार ज्ञानादि से सम्पन्न साधु समस्त प्राणियों को आत्मतुल्य (अपने समान) देखे |
व्याख्या
सब प्राणियों को आत्मवत् समझे
इस गाथा में मोहमोहित जीवों की दशा बतलाकर ज्ञानादिसम्पन्न सुविहित साधक को स्वत्वमोह छोड़कर सभी जीवों को आत्मवत् देखने का उपदेश दिया गया है ।
दुक्खी मोहे पुणो पुणो- उदयावस्था को प्राप्त असातावेदनीय को दुःख कहते हैं अथवा असातावेदनीय के कारण का नाम दुःख है । जो प्राणी को बुरा ( प्रतिकूल ) लगता है, सुहाता नहीं, उसे भी दुःख कहते हैं । जिसको दुःख हो रहा
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