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________________ वैतालीय : द्वितीय अध्ययन-तृतीय उद्देशक असर्वज्ञ दर्शन वालो ! (मोहणिज्जेण कडेण कम्मुणा) स्वयंकृत मोहनीयकर्म से (सुनिरुद्धदसणे) जिसकी ज्ञानदृष्टि बन्द हो गयी है, वह सर्वज्ञोक्त आगम को नहीं मानता, (हंदि हु) यह जानो। भावार्थ हे अन्धतुल्य पुरुष ! तुम सर्वज्ञोक्त सिद्धान्त या आगम पर श्रद्धाशील बनो। हे असर्वज्ञोक्त दर्शन को मानने वालो ! यह समझ लो कि स्वकृत मोहकर्म के कारण जिसकी ज्ञानदृष्टि बिलकुल बन्द हो गयी है, वही सर्वज्ञप्ररूपित आगम पर श्रद्धा नहीं करता। व्याख्या ___ अन्धतुल्य नास्तिकों के मन्तव्य का खण्डन इस गाथा में पूर्वगाथा में उक्त ऐहिक सुख की तृष्णा में डूबे हुए तथा परलोक को मिथ्या कहने वाले नास्तिकों की मान्यता का खण्डन करते हुए तीखी वाणी में व्यंग करते हुए शास्त्रकार कहते हैं-'अदक्खुब ... कडेण कम्मुणा ।' 'अदक्खुव' का अर्थ इस प्रकार है—जो देखता है वह ‘पश्य' है। जो नहीं देखता, वह अन्धा कहलाता है, संस्कृत में उसे 'अपश्य' कहते हैं। जो व्यक्ति कर्त्तव्य-अकर्तव्य के विचार से शून्य हैं, वे अन्धपुरुष के सदृश हैं। उसी का सम्बोधन का रूप प्रयुक्त करके कहा गया है- "हे अन्धतुल्य पुरुष ! एकमात्र प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानने के कारण कर्तव्याकर्त्तव्यविवेक से रहित पुरुष ! तुम सर्वज्ञपुरुष के वचनों (प्रवचनों) पर श्रद्धा रखो।" सर्वज्ञकथित आगमों पर श्रद्धा न करने का कारण बताते हुए शास्त्रकार कहते हैं---'हंदि हु सुनिरुद्धदंसणे"..' कम्मुणा' अर्थात् यह निश्चित समझो कि सर्वज्ञोक्त दर्शन पर श्रद्धा न करने का कारण यह है कि स्वयंकृत मोहनीयकर्म के फलस्वरूप तुम्हारी ज्ञानदृष्टि लुप्त या बन्द हो गयी है। जिस पुरुष का दर्शन यानी सम्यग्ज्ञान अत्यन्त रुक गया है, उसे निरुद्धदर्शन (सुनिरुद्धदंसणे) कहते हैं । उसका ज्ञान किससे रुक गया इसके उत्तर में शास्त्रकार कहते हैं'मोहणिज्जेण कडेण कम्मुणा ।' जीवों को मोहित करने वाले मिथ्यादर्शन अथवा ज्ञानावरणीय आदि स्वकृत कर्मों के कारण उसका ज्ञान रुक गया है, अतः वह प्राणी सर्वज्ञोक्तमार्ग में श्रद्धा नहीं करता है। मोहनीयकर्म के कारण ही उन्हें सर्वज्ञोक्त आगमों पर विश्वास नहीं होता। और इसी कारण वे लोग एकमात्र प्रत्यक्ष को प्रमाण मानते हैं। इससे समस्त व्यवहार का लोप हो जाता है। व्यवहार लोप हो जाने से उनका अस्तित्व ही खत्म हो जाएगा। क्योंकि एकमात्र प्रत्यक्ष को प्रमाण मानने पर कौन किसका पिता है ? कौन किसका पुत्र है ? इत्यादि व्यवहार भी नहीं हो सकेगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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