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________________ ३८४ सूत्रकृतांग सूत्र आशय यह है कि सर्वज्ञ सर्वदर्शी महापुरुषों ने कहा है कि टूटी हुई आयु टूटी हुई डोरी के समान जोड़ी नहीं जा सकती है । कहा भी है-- दंडकलियं करिता वच्चंति हु राइओ य दिवसा य । आउं संवेल्लंता गता य ण पुणो निवत्त ति ॥ जैसे रेतघड़ी में से रेत क्षण-क्षण में कम होती जाती है, वैसे ही दिन और रात की आयु की घड़ी - अवधि में से क्षीण होती हुई व्यतीत हो रही है । जो दिनरात्रि व्यतीत हो जाती हैं, वे फिर लौटकर नहीं आती। आयु का एक क्षण भी अरबों स्वर्णमुद्राओं से भी खरीदा नहीं जा सकता। यदि वह निरर्थक चला गया तो उससे बढ़कर और क्या हानि हो सकती है ? तेजी से बहता हुआ पानी क्या कभी लौटकर आता है ? इसी प्रकार आयु के क्षण कभी लौटकर नहीं आते । जीवन की अनित्यता अनिश्चितता इतनी युक्तितर्कसंगत और प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध होते हुए भी पामर अज्ञ जीव अपने हिताहित का विचार न करके धृष्टतापूर्वक बेखटके पापकर्म--सावद्यानुष्ठान में प्रवृत्ति करते रहते हैं। वे पाप करते हुए जरा भी नहीं हिचकते। कदाचित् कोई हितेषी पुरुष उन पापकर्ताओं को पापकर्म करते देखकर पाप न करने के लिए उपदेश देता है तो वे मिथ्यापाण्डित्य के गर्व से सना उत्तर देते हैं कि "हमें तो वर्तमानकाल से मतलब है, क्योंकि वर्तमानकाल में होने वाले पदार्थ ही वस्तुतः सत् हैं, अतीत और अनागत पदार्थ नहीं। वे तो विनष्ट और अनुत्पन्न होने के कारण अविद्यमान हैं। बुद्धिमान पुरुष तो वर्तमानकालीन पदार्थों को ही स्वीकार करते हैं। परलोक की और भूतकाल की कल्पनाएँ मिथ्या हैं, मनगढ़त हैं। भला कौन परलोक देखकर यहाँ कहने को आया है. जिस पर विश्वास किया जाए कि परलोक है, भूतकाल है ? कोई भी तो नहीं आया। इसलिए हम तो वर्तमान में इस लोक में जितना सुखभोग कर सकते हैं, करते हैं।" मूल पाठ अदक्खुव दक्खुवाहियं, (त) सद्दहसु अदक्खुदंसणा । हंदि हु सुनिरुद्धदसणे मोहणिज्जेण कडेण कम्मुणा ॥११॥ संस्कृत छाया अपश्यवत् पश्यव्याहृतं श्रद्धत्स्व अपश्यदर्शन ! गृहाण सुनिरुद्धदर्शनः मोहनीयेन कृतेन कर्मणा ।।११॥ ___ अन्वयार्थ (अदक्खुव) हे अन्धे के समान पुरुष ! (दक्खुवाहियं) सर्वज्ञ द्वारा कथित सिद्धान्त या आगम पर (सद्दहसु) श्रद्धा करो-विश्वास रखो। (अदक्खुदंसणा) हे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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