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________________ वैतालीय : द्वितीय अध्ययन — तृतीय उद्दे शक ३८३ देते हैं, स्वपरघातक हैं । वे एकान्तरूप से प्राणियों के हिंसक हैं अथवा सत्कर्म के विध्वंसक हैं । वे मरकर अपने दुष्कर्मों के फलस्वरूप पापियों के लोक - नरक तिर्यंच आदि स्थानों में जाते हैं और वहाँ चिरकाल तक निवास करते हैं । यदि बाप आदि के प्रभाव से वे देवलोक में भी चले जाएँ तो भी वहाँ असुरसम्बन्धी दिशा को ही प्राप्त करते हैं, अर्थात् वे दासरूप अधम किल्विषी देव होते हैं । इस गाथा द्वारा शास्त्रकार ने सुविहित साधकों को आरम्भ से बचने तथा अपनी आत्मा को उसके भारी दण्ड से बचाने के लिए सूचित कर दिया है । मूल पाठ णय संखयमाहु जीवितं तहविय बालजणो पगब्भई । पच्चप्पन्न कारियं को दट्ठ परलोय मागते संस्कृत छाया न च संस्कार्यमाहुर्जीवितं, तथाऽपि च बालजनः प्रगल्भते । प्रत्युत्पन्नेन कार्य को दृष्ट्वा परलोकमागतः ॥ १० ॥ अन्वयार्थ (जीवित) यह जीवन ( ण य संखयमाहु) संस्कार करने योग्य नहीं है, टूटे हुए धागे के समान पुनः जोड़े नहीं जा सकने योग्य है, ऐसा सर्वज्ञों ने कहा है । ( तहवि य) तथापि ( बालजणो ) अज्ञानी पामरजन ( पगब्भई) इस पर अत्यन्त इतराते हैं, और पाप करने में धृष्टता करते हैं । वे कहते हैं कि ( पच्चुप्पन्नेन कारियं ) हमें तो वर्तमान सुख से प्रयोजन है । ( को ) कौन (परलोयं दट्ठ) परलोक देखकर ( आगते) आया है । 112011 भावार्थ सर्वज्ञपुरुषों ने कहा है कि यह जीवन संस्कार योग्य – टूटे हुए धागे के समान फिर से जुड़ने योग्य नहीं है, तथापि मूर्ख पामरजन बेहिचक पापकर्म करने की धृष्टता करते हैं । वे कहते हैं कि हमें तो वर्तमानकालीन सुख से प्रयोजन है, परलोक को देखकर कौन आया है ? व्याख्या Jain Education International असंस्कृत जीवन होने पर भी पाप करने की धृष्टता इस गाथा में जीवन का धागा टूटने के बाद जुड़ नहीं सकता, यह बताकर शास्त्रकार ने उन पामर स्वपरहित से अज्ञजनों की करतूत पर व्यंग्य करते हुए सुविहित साधकों को इससे बोधपाठ लेने को सूचित किया है- ण य संखयमाहु जीवितं " परलोय मागते । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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