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वैतालीय : द्वितीय अध्ययन — तृतीय उद्दे शक
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देते हैं, स्वपरघातक हैं । वे एकान्तरूप से प्राणियों के हिंसक हैं अथवा सत्कर्म के विध्वंसक हैं । वे मरकर अपने दुष्कर्मों के फलस्वरूप पापियों के लोक - नरक तिर्यंच आदि स्थानों में जाते हैं और वहाँ चिरकाल तक निवास करते हैं । यदि बाप आदि के प्रभाव से वे देवलोक में भी चले जाएँ तो भी वहाँ असुरसम्बन्धी दिशा को ही प्राप्त करते हैं, अर्थात् वे दासरूप अधम किल्विषी देव होते हैं ।
इस गाथा द्वारा शास्त्रकार ने सुविहित साधकों को आरम्भ से बचने तथा अपनी आत्मा को उसके भारी दण्ड से बचाने के लिए सूचित कर दिया है ।
मूल पाठ
णय संखयमाहु जीवितं तहविय बालजणो पगब्भई । पच्चप्पन्न कारियं को दट्ठ परलोय मागते
संस्कृत छाया
न च संस्कार्यमाहुर्जीवितं, तथाऽपि च बालजनः प्रगल्भते । प्रत्युत्पन्नेन कार्य को दृष्ट्वा परलोकमागतः
॥ १० ॥
अन्वयार्थ
(जीवित) यह जीवन ( ण य संखयमाहु) संस्कार करने योग्य नहीं है, टूटे हुए धागे के समान पुनः जोड़े नहीं जा सकने योग्य है, ऐसा सर्वज्ञों ने कहा है । ( तहवि य) तथापि ( बालजणो ) अज्ञानी पामरजन ( पगब्भई) इस पर अत्यन्त इतराते हैं, और पाप करने में धृष्टता करते हैं । वे कहते हैं कि ( पच्चुप्पन्नेन कारियं ) हमें तो वर्तमान सुख से प्रयोजन है । ( को ) कौन (परलोयं दट्ठ) परलोक देखकर ( आगते) आया है ।
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भावार्थ
सर्वज्ञपुरुषों ने कहा है कि यह जीवन संस्कार योग्य – टूटे हुए धागे के समान फिर से जुड़ने योग्य नहीं है, तथापि मूर्ख पामरजन बेहिचक पापकर्म करने की धृष्टता करते हैं । वे कहते हैं कि हमें तो वर्तमानकालीन सुख से प्रयोजन है, परलोक को देखकर कौन आया है ?
व्याख्या
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असंस्कृत जीवन होने पर भी पाप करने की धृष्टता
इस गाथा में जीवन का धागा टूटने के बाद जुड़ नहीं सकता, यह बताकर शास्त्रकार ने उन पामर स्वपरहित से अज्ञजनों की करतूत पर व्यंग्य करते हुए सुविहित साधकों को इससे बोधपाठ लेने को सूचित किया है- ण य संखयमाहु जीवितं " परलोय मागते ।
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